कहते हैं देख लेता है नजरों के पार तू
मेरी तरफ भी देख जरा एक बार तू
हर बार मान लेता हूं तेरी रजा को मैं
हर बार तोड़ता है मेरा एतबार तू
करने से मेरे कुछ नहीं होना अगर तो
अहसासे बेनियाजी दे मुझ में उतार तू
सूनी पड़ी है तेरे बिना दिल की महफिलें
दो पल तो इस दयार में आकर गुजार तू
मेरी रगों में भर गई है कितनी उलझनें
है थोड़ा सा चैन दे भी दे मुझको उधार तू
मेरी पुकार में नहीं है असलियत कोई
या फिर चला गया है सदाओं के पार तू
अहसास की नजर में है बेवफा सभी
ये जिंदगी, ये रौनकें,चाहत,बहार तू
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
अच्छी ग़ज़ल है आदरणीय मनोज कुमार अहसास जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. कृपया ग़ज़ल के साथ अरकान भी लिख दिया करें तो हम जैसे सीखने वालों के लिए आसानी रहेगी. सादर.
आ. भाई मनोज जी, गजल का प्रयास अच्छा है । हार्दिक बधाई । शेष आ. समर जी कह ही चुके है ।सादर
बहुत बहुत आभार आदरणीय समर कबीर साहब
निश्चित ही ग़ज़ल थोड़ा जल्दबाज़ी में पोस्ट हो गई
आपके होने से थोड़ी लापरवाही की आदत भी पड़ गई है कि कुछ गलत होगा तो आप बता देंगे माफी भी चाहता हूं मंच पर सक्रियता न होने के कारण ,प्रयास करूँगा सादर
जनाब मनोज अहसास जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,लेकिन लगता है जल्द बाज़ी में पोस्ट की है,बधाई स्वीकार करें ।
'करने से मेरे कुछ नहीं होना अगर तो'
ये मिसरा बह्र से ख़ारिज हो रहा है,देखिये ।
'सूनी पड़ी है तेरे बिना दिल की महफिलें'
इस मिसरे में 'है' को "हैं" कर लें ।
' मेरी रगों में भर गई है कितनी उलझनें
है थोड़ा सा चैन दे भी दे मुझको उधार तू'
इस शैर के ऊला में 'है' को "हैं" कर लें,और सानी मिसरे में से "है" शब्द निकालें,मिसरा बेबह्र हो रहा है ।
'मेरी पुकार में नहीं है असलियत कोई'
इस मिसरे को यूँ कर लें तो गेयता बढ़ जाएगी:-
'मेरी पुकार में ही नहीं कोई असलियत'
'अहसास की नजर में है बेवफा सभी'
ये मिसरा बह्र में नहीं,यूँ कर सकते हैं:-
'अहसास की निगाह में हैं बेवफ़ा सभी'
कृपया मंच पर अपनी सक्रियता दिखाएँ ।
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