2122 2122 2122 2
मत समझना मैं पढ़ा अख़बार हूँ कल का
हमसफ़र हूँ,काबिले-आसार हूँ कल का।1
राह सिमटी जा रही है आज की पल-पल
देख लो मुझको जरा आधार हूँ कल का।2
कौड़ियों के मोल बिकता आज तुम्हारा
सच लिए चलता रहा मनुहार हूँ कल का।3
रोशनाई की उमंगों का रहा कायल
लग रहा जैसा भले उजियार हूँ कल का।4
हो गया धुँधला बदन करतूत तेरी है
मौन हूँ मैं आज पारावार हूँ कल का।5
बेच लो अपनी हकीकत हो सके जितना
सच लिए सबका खरा बाजार हूँ कल का।6
गीत अपने तुम सुना लो आज ढुलमुल-से
गर्दिशों से जूझता अशआर हूँ कल का।7
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब मनन कुमार सिंह जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
आ. मनन सिंह सर, अच्छी ग़ज़ल है, सादर बधाई। शेर क्र. 3 और 5 में तक़ाबुल ज रदीफ़ की सूरत बन रही है ज़रा देख लीजिएगा।
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