थम रही हैं क्यों नहीं ये सिसकियाँ
क्यों परेशां हैं चमन में तितलियाँ
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साल सत्तर से भले आज़ाद हैं
आज भी सजती बदन की मंडियाँ
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अब घरों में भी कहाँ महफ़ूज़ हैं
ख़ौफ़ के साये में रहती बेटियाँ
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ये बशर कैसी तेरी मर्दानगी
मार देता क्यों है नन्ही बच्चियाँ
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कहते हैं हम बेटा-बेटी एक से
फ़र्क़ बाक़ी है नज़र के दरमियाँ
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गर तरक़्क़ी की डगर पर चल पड़े
गिरने बेटी पर हैं लगती बिजलियाँ
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दुख्त* पर लागू पुराने क़ायदे
हैं जियादातर वही पाबन्दियाँ
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बाप बेटी का परेशां आज भी
फ़िक़्र की रहती है छाई बदलियाँ
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है विदाई का वही मंज़र 'तुरंत '
सिसकियाँ शहनाइयाँ और हिचकियाँ
***
गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' बीकानेरी
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय Samar kabeer साहेब , मद्दाह में दुख्त और दुख्तर ही लिखा है | हालाँकि जैसा आपने बताया मद्दाह पर भरोसा करना मुश्किल है | एक और प्रयोग में भी दुख्त =बेटी ही है | (यहाँ नुक्ता यूनिकोड में नहीं आ रहा है )
बे-दुख़्त-ए-रज़بے دخت رز
without daughter of grapes, wine
"दुख़्त" दुख़्तर का मुख़फ़्फ़फ़् नहीं "दुख़" है,देखियेगा ।
आदरणीय Samar kabeer साहेब | आदाब | इतना ध्यान रखा फिर भी एक हैं की गलती रह ही गई | आपकी हौसला आफजाई के लिए शुक्रगुजार हूँ | दुख्त =बेटी /कन्या का अर्थ लिया है जिसे दुख्तर का लघु माना जाता है |
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'अब घरों में भी कहाँ महफ़ूज़ है '
इस मिसरे में 'है' को "हैं" कर लें ।
'दुख्त* पर लागू पुराने क़ायदे'
इस मिसरे में 'दुख्त' का क्या अर्थ लिया है आपने?
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