२२२२/ २२२२/२२२२/ २२२२
खेतों खलिहानों तक पसरी नीम करेला बरगद यादें
खूब सजाकर बैठा करती फुरसत के पल संसद यादें।१।
आवारापन इनकी फितरत बंजारों सी चलती फिरती
कब रखती हैं यार बताओ खींच के अपनी सरहद यादें।२।
कतराती हैं भीड़ भाड़ से हम तो कहते शायद यादें
तनहाई में करती हैं जो सबको बेढब गदगद यादें।३।
बचपन रखता यार न इनको और सहेजे खूब बुढ़ापा
होती हैं लेकिन विरहन को सबसे ज्यादा आमद यादें।४।
होती है बच्चों सी आदत कूची हाथ लगे तो हरदम
रखना चाहें पोतपात कर जीवन का हर कागद यादें।५।
इतिहासों के सूखेपन से मन हो जाये और न बंजर
सोच के यारो खूब बरसती हरपल सबको नीरद यादें।६।
ढाँढस देने और किसी को दुख भी यादें याद करें पर
अपने दुख में केवल रखती खुशियों को ही मक्सद यादें।७।
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मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई बृजेश जी, गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार।
बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आदरणीय..वाह
आ. भाई समर जी, हार्दिक आभार ।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
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