न गुनगुनाना न बोल पड़ना,
अभी अधर पर सघन हैं पहरे।
अगर तिमिर को सुबह कहोगे
तभी सुरक्षित सदा रहोगे
अभी व्यथा को व्यथा न कहना
कथा कहो या कि मौन रहना
न बात कहना निशब्द रहना
सुकर्ण सारे हुए हैं बहरे।
न तार छेड़ो सितार के तुम
बनो न भागी विचार के तुम
हवा बहे जिस दिशा बहो तुम
स्वतंत्र मन को विदा कहो तुम।
यही समय की पुकार सुन लो
सवाल सारे दबा दो गहरे।
मशाल रखना गुनाह घोषित
वहाँ करें कौन दीप पोषित।
प्रकाश की हर सभा को घेरे,
बने सभापति गहन अँधेरे।
विराट संकट टला नहीं हैं
कहो किरण से यहाँ न ठहरे।
न वेदना का सचित्र लेखा
न मुस्कुराते किसी को देखा
विकास गाथा व्यथा छुपाकर
सुना रहे हैं बिगुल बजाकर
नई व्यवस्था में मिल रहे हैं
अमीर दर्पण गरीब चेहरे।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय अनीस शेख जी, आपकी प्रशंसा मुग्धकारी है। सराहना और मुक्तकंठ प्रशंसा हेतु हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद आप का। सादर
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी इस गीत के लिए बहुत बहुत बधाई मुझे गीत लेखन के बारे में जियादा कुछ नहीं पता और गीतों को मैं सरसरी नज़र से पढ़ कर आगे बढ़ जाता था , पर आपके इस गीत ने मुझे जकड़ लिया और इसकी लय ने मुझे ख़ुद में जैसे डुबो लिया है इतना आनंद मुझे आमिर खुसरो साहब की ग़ज़ल "जे -हाल -ए -मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराएँ नैना बनाए बतियाँ" पढ़ के मिला था , आपके इस गीत को पढ़ कर गीत लिखने की इच्छा होने लगी पुनः एक बार बहुत बहुत बधाई |
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार।बहुत बहुत धन्यवाद।सादर।
आदरणीय समर कबीर जी, इस गीत पर आपकी सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया पाकर मुग्ध हूँ। एक अरसे बाद फिर से अभ्यास शुरू किया है। पूरे एक साल बाद। अब अभ्यास में निरंतर रहने का प्रयास करूँगा। इस प्रयास की सराहना हेतु आभार।सादर
आदरणीय हरिओम जी, गीत की सराहना एवम उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। सादर।
आदरणीय सतविंद्र जी, गीत की सराहना हेतु हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। सादर।
आदरणीय बृजेश कुमार जी, मेरे प्रयास की सराहना के लिए आभार। आप गीत को विशेष चश्मे से देख रहे हैं जबकि मेरा गीत सार्वभौमिक दृष्टि की अपेक्षा रखता है। आप गीत को भारत की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था के सापेक्ष देखेंगे तो यह आपको आज़ादी के पहले का, आज़ादी के बाद का और आज का गीत लगेगा। खैर मैंने पूरा प्रयास किया कि व्यथित भारत की स्थिति को शाब्दिक करने का। आप गीत की प्रत्येक पंक्ति पर गहन विचार करें तो सम्भवतः मेरे प्रयास तक पहुंच सकें। एक बात और कि कवि का कथ्य सदैव सत्य और यथार्थ के विश्लेषण उपरांत ही संप्रेषित होता है। कृपया ऐसे समस्त वाद, विचारधारा आदि से मुक्त एक आम आदमी जो रोटी कपड़ा मकान स्वास्थ्य शिक्षा आदि के जुगाड़ में तिलतिल कर मर रहा है उसकी दृष्टि से भी देखना एक कवि का दायित्व है। अपनी समृद्धि और खुशी के आधार पर ये तो नहीं कहा जा सकता कि सारी दुनिया सुखी है। बाज़ारवादी अमीर और मौकापरस्त शक्तिशाली लोग आम आदमी के साथ क्या क्या करते हैं ये किसी से छिपा नहीं है। राजनैतिक विद्रूपताओं, सामाजिक विडंबनाओं और आर्थिक विसंगतियों के बावजूद एक आम नागरिक संघर्षरत है। बस उसी दृष्टि से गीत को देखा जाना चाहिए। सादर
आ. भाई मिथिलेश जी, वर्तमान संदर्भ में बेहतरीन अभिव्यक्ति हुयी है। कोटि कोटि बधाई।
आ. भाई मिथिलेश जी, वर्तमान संदर्भ में बेहतरीन अभिव्यक्ति हुयी है। कोटि कोटि बधाई।
जनाब मिथिलेश वामनकर जी आदाब,एक मुद्दत के बाद ब्लॉग पर आपकी रचना देखकर कितना प्रसन्न हूँ बता नहीं सकता ।
बहुत ही सुंदर और व्यंगात्मक गीत की सौग़ात लेकर आये हैं आप मंच के लिए,बस मुँह से वाह अपने आप निकल रही है,क्या प्रवाह है,क्या शब्दों का संतुलन है,बहुत ख़ूब, इस प्रस्तुति पर दिल से दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
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