हाँ मैं नारी हूँ
घर की मर्यादा हूँ,
प्रेम पूरित वादा हूँ
पिता का सम्मान हूँ
पति की इज्जत हूँ
रिश्तों की शान हूँ
सारी बंदिशें, तमाम वर्जनाएं
निर्धारित हैं मेरे लिए
मेरे लिए ही सब 'कहना' है
मुझे ही सब कुछ 'सुनना'
विष मेरे लिए है
मैं मीरा बनूँ
पत्थर मेरे लिए
तो मैं अहिल्या बनूँ
अग्नि परीक्षा देकर भी
घर से निकल सीता मैं बनूँ।
पर उस चिता के बीच
घुटती फ़रियादों से अलग
भींचे होठों, रुंधे गले से परे
बंदिशों, वर्जनाओं के बीच
सम्हाला अपने अस्तित्व को
दुनियां ने जो बांधे मेरे पैरों में
परंपरा की जंजीरों को
कब तक मानूँ
नियति या संयोग को
तोड़ के हर पिंजरे को
उड़ान भरने निकल जाउंगी
दुनियां को दिखलाऊँगी
उम्मीद भरे परवाज से
आसमान में जगह बनाउंगी
हाँ मैं नारी हूँ
मुझे गर्व है मैं नारी हूँ।
मुझे गर्व है मैं नारी हूँ।
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आ. नीलम जी, सुंदर रचना हुयी है ।हार्दिक बधाई।
आदरणीया नीलम जी, आपकी रचना का भाव-विन्यास और इसकी शाब्दिकता दोनों ध्यानाकृष्ट कर रही हैं. अत्यंत गहन मनोदशा की वैचारिकता साझा हुई है. नारी की परिस्थितियों को जिन शब्दों में उकेरा गया है उसका निर्वहन आगे भी होना था. दूसरा भाव-बंद तनिक और वर्णनात्मक होना था ताकि वह अंतिम बंद को तार्किक ढंग से सँभाल पाता. अपनी नारी सुलभ विसंगतियों के बखान बाद किस कारण से नारी होने पर गर्व का भान होने लगा ? इस बिन्दु पर भी तनिक सोचिएगा.
बहरहाल, इस अनुपम अभिव्यक्तो पर हार्दिक बधाइयाँ.
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय समर कबीर जी।
मुहतरमा नीलम उपाध्याय जी आदाब,महिला दिवस पर बहुत उम्दा रचना पेश की आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
रचना को समय देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय हरिओम श्रीवास्तव जी
वाह,वाहह,बहुत सुंदर रचना। नारी ईश्वर की श्रष्टि रचना है,इसलिए नारी होने पर गर्व होना ही चाहिए।
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