ग़ज़ल
मिलन की रात का लम्हा छुपा है
नज़र में बस तेरा चेहरा छुपा है
दुआ लेकर निकलना रोज़ घर से
यहाँ हर मोड़ पर ख़तरा छुपा है
लबों पर प्यास लेकर फिरने वाले
तेरे अंदर भी इक दरिया छुपा है
महकती है हमेशा ज़ीस्त यूँ भी
कि सांसों में तेरा गजरा छुपा है
सनम मत जा अभी ख़्वाबों से मेरे
अभी तो चाँद भी आधा छुपा है
'अहद' लिखना न होगा बंद मेरा
अभी दिल में बहुत लावा छुपा है !
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
बहुत ही खूब ग़ज़ल कही है आपने..बधाई आदरणीय
जनाब अमित जी आदाब,उम्द: ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
महकती है हमेशा ज़ीस्त यूँ भी
कि सांसों में तेरा गजरा छुपा है
आदरणीय अमित जी बहुत खूबसूरत अशआर बन पड़े हैं। दिल से बधाई।
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