2122 2122 212
जब लबों पर वह तराना आ गया ।
याद फिर गुजरा ज़माना आ गया ।।
शब के आने की हुई जैसे खबर ।
जुगनुओं को जगमगाना आ गया ।।
मैकदे को शुक्रिया कुछ तो कहो।
अब तुम्हें पीना पिलाना आ गया ।।
वस्ल की इक रात जो मांगी यहां ।
फिर तेरा लहजा पुराना आ गया ।।
छोड़ जाता मैं तेरी महफ़िल मगर ।
बीच मे ये दोस्ताना आ गया ।।
जब भी गुज़रे हैं गली से वो मेरे ।
फिर तो मौसम क़ातिलाना आ गया ।।
आरिजे गुल पर तबस्सुम देख कर ।
तितलियों को भी रिझाना आ गया ।।
उठ रहीं जब से कलम पर उँगलियाँ ।
और चर्चा में फ़साना आ गया ।।
कुछ तेरी सुहबत का शायद है असर ।
ज़िंदगी को मुस्कुराना आ गया ।।
हुस्न जब दाखिल हुआ महफ़िल में तब।
शायरों का आबो दाना आ गया ।
बदला बदला आपका है ये मिज़ाज ।
हाथ में क्या फिर खज़ाना आ गया ।।
डॉ नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ. भाई नवीन जी, बेहतरीन गजल हुई है । हार्दिक बधाई।
हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी साहब जी।बेहतरीन गज़ल।
बदला बदला आपका है ये मिज़ाज ।
हाथ में क्या फिर खज़ाना आ गया ।।
आद0 नवीन मनी त्रिपाठी जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही आपने बधाई स्वीकार कीजिये
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