कितना अफ़्कार में मश्ग़ूल हर इक इन्साँ है
कोई बेफ़िक्र अगर है तो सियासतदाँ है
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ख़ाक उड़ती है जिधर देखूँ उधर सहरा-सी
इस क़दर दिल का नगर आज मेरा वीराँ है
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बात गुस्से में कही फिर से ज़रा ग़ौर तो कर
"जी ले तू प्यार के बिन " कहना बहुत आसाँ है
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कोई अफ़सोस नहीं गर मेरी रुसवाई का
शर्म से क्यों हुई ख़म यार तेरी मिज़गाँ है
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मुख़्तलिफ़ आम नज़रिया-ए-मुहब्बत देखा
कोई फ़िरदोष कहे कोई कहे ज़िन्दाँ है
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कौन तारीकी करे दूर भला तेरे सिवा
सिर्फ़ अल्लाह तेरे दम से जहाँ रुख्शाँ है
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इन अनासिर से बने जिस्म पे इतरा मत तू
हुस्न हद से हो जियादा तो वबाल-ए-जाँ है
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उसको अब दार पे लटकाना ज़रूरी है बहुत
जुर्म करता है वतन में जो शरर-अफ़्शाँ है
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है जहाँ प्यार वहीं अस्ल में फ़िरदोष 'तुरंत '
और तू ही तेरे फ़िरदोष का ख़ुद रिज़्वाँ है
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शब्दार्थ -अफ़्कार =चिंताओं ,मश्ग़ूल=संलग्न
वीराँ=उजड़ा हुआ ,मिज़गाँ=पलक,मुख़्तलिफ़=अलग
फ़िरदोष=स्वर्ग , ज़िन्दाँ=क़ैदख़ाना ,तारीकी=अँधेरा
रुख्शाँ=प्रकाशमान ,अनासिर=पञ्चतत्व
वबाल-ए-जाँ=जी का जंजाल ,दार =सूली
शरर-अफ़्शाँ=उपद्रवी ,रिज़्वाँ=स्वर्गाधीश
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
आपकी हौसला आफ़जाई के लिए बहुत बहुत आभार Pradeep Devisharan Bhatt जी
अच्छि गज़ल हुई गह्लौत जी
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