(२१२२ ११२२ ११२२ २२/११२ )
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रंज-ओ-ग़म हो न अगर आँखें कभी रोती क्या ?
बेसबब साहिल-ए-मिज़गाँ पे नमी होती क्या ?
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ज़ख़्म ख़ुद साफ़ करें और लगाएं मरहम
ज़ख़्म क़ुदरत किसी के ज़िंदगी में धोती क्या ?
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चन्द लोगों के नसीबों में लिखी है ग़ुरबत
ज़ीस्त सबकी ग़मों का बोझ कभी ढोती क्या ?
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बाग़बाँ फ़र्ज़ निभाता जो तू मुस्तैदी से
तो कली बाग़ की अस्मत को कभी खोती क्या ?
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क्यों किनारे पे कई बार सफ़ीने डूबे
इस तरह रब कभी क़िस्मत किसी की सोती क्या ?
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एक अहसास को कुछ लोग बयाँ करते यूँ -
"इश्क़ पत्थर की ज़मीँ है" किसी ने जोती क्या ?
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बीज अगर चैन-ओ-सुकूँ के नहीं बाज़ारों में
ज़िंदगी ग़म के बियाबाँ में भला बोती क्या ?
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ख़ौफ़ आँखों में तेरी डूबने का है लेकिन
किसी जोख़िम के बिना मिलते कभी मोती क्या ?
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खोद कितनी भी क़लम से तू ज़मीँ चाहे 'तुरंत'
हर्फ़ बोने से कभी फ़स्ल-ए-ग़ज़ल होती क्या ?
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
२८ /०५/२०१९
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आपकी सराहनापूर्ण उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए अंतस से आभार भाई narendrasinh chauhan जी
सुन्दर रचना
आपकी सराहनापूर्ण उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए अंतस से आभार संग नमन |Sushil Sarna जी
गज़ब के अशआर हैं आदरणीय गहलोत साहिब .... दिल में उतर जाते हैं आपके शे'र .... दिल से मुबारकबाद कबूल फरमाएं सर।
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