थक गया हूँ
चाहता हूँ
तनिक सा विश्राम ले लूँ
तोड़कर मैं अर्गला
नश्वर वपुष की
किन्तु संकट है विकट
ढूंढें नही मिलता मुझे
इस ठौर पानी
एक चुल्लू साफ़
सिर्फ मरने के लिए
(मौलिक अप्रकाशित)
Comment
आपकी इस सुन्दर रचना से न जाने क्यूँ मुझको बहादुर शाह ज़फ़र जी की याद आई ... दो गज़ ज़मीं भी न मिली दफ़न के लिए ...।हार्दिक बधाई, भाई गोपाल नारायन जी , बहुत ही सुन्दर ।
आ० तिवारी जी
यह महज इत्तेफाक है की मेरी कविता में कुछ सीमा तक २१२२ का स्वतः निर्वाह हुआ पर मैंनेयह रचना बहर में नही की i यदि ऐसा होता तो आपको चार पंक्तिया पूरे बहर में मिलती जैसे मेरी यह रचना है -
युद्ध छल से ही किया लेकिन न रण के दांव सीखे
और अब तक शेर के तुमको नहीं हैं दांत दीखे
हार रावण की सभा हमसे गयी थी बहुत पहले
तुम पछाडोगे हमारे पाँव अंगद के सरीखे ?
पर आपने रचना पर इतना ध्यान दिया i इस हेतु आपका आभारi
आदरणीय गोपाल जी, महादेवी जी का गीत फ़ाइलातुन (2122) की आवृत्ति पर आधारित है (फ़ाइलातुन x 4). इस छंद (बह्रे रमल) का इस्तेमाल उन्होंने अपने एक और मशहूर गीत 'जाग तुझको दूर जाना' में भी किया है. आपकी कविता भी बहुत हद तक 'फ़ाइलातुन' की आवृत्ति पर आधारित है.
मैंने जो परिवर्तन किये हैं वो 'फ़ाइलातुन' को ही आधार मान कर किये हैं :
किन्तु संकट (फ़ाइलातुन) है विकट ढूं (फ़ाइलातुन) ढें नही मिल (फ़ाइलातुन) ता कहीं इस(फ़ाइलातुन) ठौर मुझको (फ़ाइलातुन)
अब तो मरने(फ़ाइलातुन) के लिए भी(फ़ाइलातुन) एक चुल्लू (फ़ाइलातुन) साफ़ पानी (फ़ाइलातुन)
'स्नेह निर्झर बह गया है
रेत ज्यूँ तन रह गया है'
निराला की ये पंक्तियाँ भी इसी छंद पर आधारित हैं.
सादर
आद0 गोपाल जी सादर अभिवादन। बेहतरीन रचना पर आपको बधाई देता हूँ
जनाब गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी आदाब,अच्छी कविता लिखी आपने,बधाई स्वीकार करें ।
आ० अजय तिवारी जी चकित हूँ की १४,१४ मात्राओं में पिरोये महादेवी की गीति रचना से आपने इसकी तुलना कर डाली i पहली बात तो यह की मैंने छंद रचना, की ही नहीं i यह तो सीधी-सीधी समकालीन अतुकांत लघु कविता है I आपने जो परिवर्तन किया है उसका प्रति पंक्ति मात्रिक विन्यास इस प्रकार होगा - १२, 1४ , ९, ,१५ और १४ ऐसा मात्रिक विन्यास किस छंद में संभव है , मुझे ज्ञात नहीं i कृपया मेरी जानकारी के लिए अपने कथन को और अधिक स्पष्ट करेंगे तो मैं अवश्य ही अनुग्रहीत हूँगा I सादर I
आदरणीय गोपाल जी, आपकी इस कविता के छंद ने 'पंथ होने दो अपरिचित प्राण रहने दो अकेला' की याद दिलाई .
'किन्तु संकट है विकट
ढूंढें नही मिलता मुझे
इस ठौर पानी
एक चुल्लू साफ़
सिर्फ मरने के लिए'
आखिरी पंक्ति छंद से बाहर है. वैसे इस काव्य-रूप में छंद का अनुपालन अनिवार्यता नहीं है. लेकिन इसे भी अगर छंद के अनुरूप किया जा सके तो बेहतर होगा. मस्लन :
किन्तु संकट है विकट
ढूंढें नही मिलता कहीं
इस ठौर मुझको
अब तो मरने के लिए भी
एक चुल्लू साफ़ पानी
एक प्रभावशाली व्यंग-कविता के लिए हार्दिक बधाई.
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online