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जाड़े की सुबह का ठिठुरता कोहरा

या हो ग्रीश्म की तपती धूप की तड़पन

अलसाए खड़े पेड़ की परछाईं ले अंगड़ाई

या आए पुरवाई हवा लिए वसन्ती बयार

उमड़-उमड़ आता है नभ में नम घटा-सा

तुम्झारी झरती आँखों में मेरे प्रति प्रतिपल

धड़कन में बसा लहराता वह पागल प्यार

इस पर भी, प्रिय, आता है खयाल

फूल कितने ही विकसित हों आँगन में

पर हो आँगन अगर बित्ता-भर उदास

छू ले सदूर शहनाई की वेदना का विस्तार

तो गुलाब हो, गेंदा हो, या हो हरसिंगार

नहीं पहुँचती, नहीं पहुँचती है मुझ तक

इन सब फूलों की मनमोहक महक

भीतरी तहों में फिर महसूस होती है क्यूँ

निर्दोश फूलों के नुकीले कांटों की चुभन ?

ऐसे में, प्रिय, मैं तुमसे प्यार जता नहीं पाता

चुप हो जाती है हवा, चुप हो जाता हूँ मैं

स्याह उदासी की चट्टानी नकाब

शिलामूर्ति-से चेहरे से मैं हटा नहीं पाता

भीतरी दरारों में ठहरा रहता है देर तक

कोई झकझोरता अपराधी भाव

इसीलिए रह-रह कर लौट आता है

एक उल्झा-सा सवाल ---

कब तक रख सकोगी, प्रिय, तुम मेरे लिए

बंद करके पलकों में प्यार ?

                 ------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on August 9, 2019 at 3:54am

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मित्र लक्ष्मण जी

Comment by vijay nikore on August 9, 2019 at 3:53am

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई समर कबीर जी

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 5, 2019 at 8:39am

आ. भाई विजय जी, सादर अभिवादन। बेहतरीन रचना हुई है हार्दिक बधाई ।

Comment by Samar kabeer on August 4, 2019 at 10:32am

प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,हमेशा की तरह एक गम्भीर और सशक्त कविता से नवाज़ा है आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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