कहे-अनसुने-से रहे कुछ जज़्बात
उसपर अनकहे एहसासों का भार
अजीब-सी बेचैन बेकाबू धड़कन का
तकलीफ़-भरा भयानक शोर ...
पन्नों पर उतर तो आते हैं यह
पर भरमाया घबराया मन
इनकार भरा
भार कोई हल्का नहीं होता
पगलाई अन्दरूनी हवाएँ
खयालों-सी वेगवान
झकझोरती आसमानी तूफ़ान बनी
लफ़्ज़ों से लफ़्ज़ टकराते
सूखे पेड़ों-से छूटे पत्तों की तरह
आढ़ी-टेढ़ी लकीरों को बेतहाशा समेटते
लुढ़क जाती है स्याही
रात अँधेरी बिछ जाती है
लावारिस लफ़्ज़ों की रूह पर
काले कफ़न की तरह
टूटा-अधटूटा सिफ़र होता
असंग आत्म-विश्वास
बिखर चुका है सब भीतर
परेशान थका-खड़ा देखता हूँ मैंं
बदनसीब कहे-अनसुने जज़्बातों को
अब मृत हुए अनकहे एहसासों को
पुरानी खबर की तरह...
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय भाई समर कबीर जी
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,हमेशा की तरह एक उम्द: रचना,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आपका हार्दिक आभार, आदरणीय लक्ष्मण जी।
आपका हार्दिक आभार, आदरणीय C M Upadhay ji
आ. भाई विजय जी, सुंदर रचना हुयी है । हार्दिक बधाई।
सुन्दर रचना
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