बरसों से जो ख्वाब थे देखे, पूरे हमने कर डाले
मंसूबे हर एक दुश्मन के, बिना सर्फ़ के धो डाले
धाराओं के जाल में, मज़लूमों का जो हक थे मार रहे
हमने ऐसी धाराओं के हर्फ वो सारे धो डाले
सदियों से जो जमी हुई थी, साफ़ नही कर पाया कोई
हमने ऐसी जमी मैल के, बर्फ वो सारे धो डाले
तीन दुकाने चलती रहती थीं, कश्मीर की घाटी में
हमने ऐसे बीन बीन कर, ज़र्फ वो सारे धो डाले
बार बार समझाया सबको, पर वो समझ नही पाए
हमने 'दीप' फ़िर मजबूरी में कम-ज़र्फ़ वो धो डाले
-प्रदीप देवीशरण भट्ट- मौलिक व अप्रकशित
सर्फ- फ़ेनिल लहर/कपडे धोने वाला पदार्थ
हर्फ-शब्द/लफ्ज़
बर्फ-मी,पाला,हिम
जर्फ-पात्र/ समार्थ्य
Comment
आदरणीय प्रदीप जी नमस्कार बहुत ही अच्छी कविता , बधाई स्वीकार करें
साथ ही "वियोग " के लिए भी हार्दिक आभार
शुक्रिया धामी जी,
आ. भाई प्रदीप देवीशरण जी, सुंदर रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
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