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उदास बैठे हैं - सलीम रज़ा रीवा

1212 1122 1212 22

जो मेरी छत पे कबूतर उदास बैठे हैं
वो तेरी याद में दिलबर उदास बैठे हैं

तुम्हारी याद के लश्कर उदास बैठे हैं
हसीन ख़्वाब के मंज़र उदास बैठे हैं

तमाम गालियाँ हैं ख़ामोश तेरे जाने से
तमाम राह के पत्थर उदास बैठे हैं

बिना पिए तो सुना है उदास रिंदों को
मियाँ जी आप तो पी कर उदास बैठे हैं 

ज़रा सी बात पे वो छोड़ कर गया मुझको
ज़रा सी बात को लेकर उदास बैठे हैं

तेरे बग़ैर हर एक शय की आँख पुरनम है
हमीं नहीं मह-ओ-अख़्तर उदास बैठे हैं


तमाम शहर तरसता है उनसे मिलने को
'रज़ा' जी आप तो मिलकर उदास बैठे हैं 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by SALIM RAZA REWA on September 26, 2019 at 3:48pm

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी ग़ज़ल तक आमद के लिए शुक्रिया 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 26, 2019 at 11:56am
  1. आ. भाई सलीम जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
Comment by SALIM RAZA REWA on September 23, 2019 at 10:03pm

जी मोहतरम आपकी दोनों सहमत हूँ
बहुत शुक्रिया सुधार कर दिया हूँ

Comment by Samar kabeer on September 23, 2019 at 3:02pm

जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।

'जो मेरे छत पे कबूतर उदास बैठे हैं'

इस मिसरे में 'मेरे' को "मेरी" करना उचित होगा ।

'ज़रा सी बात पे वो छोड़ गया है मुझको'

ये मिसरा बह्र में नहीं है,देखियेगा ।

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