2122 1122 1122 22
मेरी आँखों में हुआ जब से ठिकाना तेरा
लोग कहते हैं सरे आम दिवाना तेरा
रोज़ मिलने की तसल्ली न दिया कर मुझको
जान ले लेगा किसी रोज़ बहाना तेरा
छीन लेगा ये मेरा होश यकीनन इक दिन
यूँ ख़यालों में शब-ओ-रोज़ का आना तेरा
होश वालों को कहीं फिर न बना दे पागल
महफिले हुस्न में बन ठन के यूँ आना तेरा
भूल पाना बड़ा मुश्किल है वो दिलकश मंज़र
मुस्कुरा कर लब-ए-नाज़ुक को दबाना तेरा
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"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
बहुत अच्छा मशविरा है मोहतरम समर साहब बहुत बहुत शुक्रिया, नवाज़िश
बहुत अच्छा मशविरा है मोहतरम तस्दीक साहब, शुक्रिया
जनाब सलीम रज़ा साहिब आ दाब, अच्छी गज़ल हुई है मुबारकबाद कुबूल फरमाएं l शेर 3 के सानी को यूँ भी कर सकते हैं
"हर घड़ी मेरे ख़्यालों में यूँ आना तेरा"
'यूँ ख़यालों में सुबो शाम का आना तेरा'
ये मिसरा अब भी ग़लत है "सुबो शाम''?,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
'यूँ ख़यालों में शब-ओ-रोज़ का आना तेरा'
'महफिलें हुस्न में बन ठन के यूँ आना तेरा'
इस मिसरे में 'महफिलें' बहुवचन हो रहा है,इसे "महफ़िल-ए-" कर लें ।
ग़ज़ल तक पहुँचने के लिए बहुत शुक्रिया जनाब समर साहब , जी मैं सेट करता हूँ ,
बहुत शुक्रिया आदरणीय तेजवीर सिंह जी
बहुत शुक्रिया बृजेश कुमार 'ब्रज' जी
हार्दिक बधाई आदरणीय सलीम रजा रीवा जी। बेहतरीन गज़ल।
रोज़ मिलने की तसल्ली न दिया कर मुझको
जान ले लेगा किसी रोज़ बहाना तेरा
जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
'यूँ ख़्यालों में सुब्ह-ओ-शाम का आना तेरा'
ये मिसरा बह्र में नहीं है,देखियेगा ।
'अहले महफ़िल को ये दीवाना बना रक्खा है
महफिलें हुस्न में बन ठन के यूँ आना तेरा'
इस शैर के दोनों मिसरों में 'महफ़िल' शब्द खटकता है,और ऊला में 'रक्खा है' को "रखता है" करना उचित होगा,देखियेगा ।
वाह क्या कहने बहुत ही खूब ग़ज़ल कही है ज़नाब सलीम साहब
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