12122×4
अंधेरी घाटी में रोशनी का हसीन चश्मा जरूर होगा
हमें खबर तो नहीं है फिर भी तलब का रस्ता जरूर होगा
पुराने शब्दों की बारिशों में सकून अपना तलाश कर ले
जो उसके दिल में कहीं नहीं था वो खत में लिक्खा जरूर होगा
तेरे कदम यूं जमे हुए हैं, तुझे हिलाना सरल नहीं है
हमारी आहों से फिर भी इक दिन तेरा तमाशा जरूर होगा
चरागों का दम चुराने वाले क्या तुझको इतनी समझ नहीं है,
बुझेगी सूरज की जिंदगी जब, इन्हें जलाना जरूर होगा
पुकार मेरी न सुनने वाले तेरे सफर का चढ़ाव है अब
किसी ऊंचाई को छू के लेकिन तुझे उतरना जरूर होगा
करीब रहके भी तूने मेरी तड़प जरा भी सुनी नहीं है
किसी खबर पर तुझे यकीनन कभी तड़पना जरूर होगा
हमारे पहलू में रोशनी के ख्याल बेसुध पड़े हुए हैं
जमीं की खातिर फलक के दम पर हमें संभलना जरूर होगा
वफा के हकदार चंद मिसरे जो शेर बनने से रह गए हैं
जो इनको सानी समझ ले अपना कोई तो ऐसा जरूर होगा
गयी हुकूमत का कुछ सुना कर, नयी हुकुम मत से कुछ डराकर
यें सिर्फ हमको लड़ा रहे हैं हमें समझना जरूर होगा
सुखन के साये में जीने वाली,ओ जिंदगी की उदास शक्लों
यकीन रखो तुम्हारी खातिर नया सवेरा जरूर होगा
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
बहुत ही शानदार ग़ज़ल कही है आदरणीय मनोज जी बधाई..
चौथे शे'र को अगर यूँ कहें
चराग़ हरदम बुझाने वाले क्या तुझको इतनी समझ नहीं है
मिटेगी या ढलेगी ,सूरज की ज़िन्दगी जब इन्हें जलाना जरूर होगा
किसी ऊंचाई
यहां ऊंचाई को 122 पर नहीं ले सकते ।
इसे ऐसा कर सकते हैं
किसी बुलंदी को छू के
121 22 121 22 121 22 121 22
ख्याल का बहुबचन ख्यालात होता है मेरे विचार से ख्याल एक बचन है ।
या फिर ऐसा कहें खयाल बेसुध पड़ा हुआ है ।
मतले में रब्त हासिल करने का प्रयास कर रहा हूँ
हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर साहब
सादर
जनाब मनोज कुमार अहसास जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकार करें ।
'नयी हुकुम मत से कुछ डराकर'
इस पंक्ति में 'हुकुम मत' को "हुकूमत" कर लें ।
'यकीन रखो तुम्हारी खातिर नया सवेरा जरूर होगा'
इस मिसरे में 'रखो' को "रक्खो" कर लें,बह्र गड़बड़ हो रही है ।
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