" वो लोग भी कमाल के होते हैं, जो कमाल की बाते करते हैं ।",उनकी मीटिंग खत्म होने के बाद पास बैठे आदमी ने कहा
"पर इन लोगों ने कभी चुप शांत रहने वाले लोगों के बारे भी सोचा है, वो भी कुछ दायरे संभाल रखें हैं ।" , उसने ख़ुद से पूछा
चुप व शांत रहने वालों की भी उन्हें प्रवाह करनी चाहिए, जब वे लोग आपस में बातें कर रहे होते हैं ।
"पर उनके लिए ये जानना भी ज़रूरी है कि इनकी सोच के दायरे से बड़ा भी कोई किसी का दायरा हो सकता है ।"
वहाँ बैठे आदमी ने फिर पूछ ही लिया, " भाई साहिब, आप जो बातें कर रहे हो, क्या इस में आप की ज़िंदगी में कभी कुछ हुआ है या किताबी ज्ञान है,जिस के बारे आप की बातें कर रहें हैं ?"
पहला सयाना दूसरे की तरफ देखने लगा और फिर दोनों उस आदमी की तरफ जिस ने सवाल पूछे ।
"हर आदमी का अपना दायरा होता, जो न बड़ा न छोटा, बस होता है बस दायरा होता है" उन दोनों में से इक ने कहा,
"पर ये ज़रूरी है, वह कल्पना के साथ साथ हक़ीक़त से बना हो।" पास बैठे आदमी ने फिर अपनी बात कही
और सभी सहमति असहमति के बीच झूलने लगे ।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब मोहन बेगोवाल जी आदाब,लघुकथा का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
हार्दिक बधाई आदरणीय मोहन बेगोवाल जी।बेहतरीन लघुकथा।ऊपर से तीसरी पंक्ति में "प्रवाह" के स्थान पर मेरे विचार से "परवाह" होना चाहिये।
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