काश ! ऐसा हो जाये कि,
ज़िंदगी एक पूरा नशा बन जाये,
नशे में सब कुछ माफ हो, और,
ज़िंदगी जीने का मज़ा आ जाये ।
जी लूँ कुछ,
इस तरह कि,
अगले जनम की भी,
चाह न रह जाए।
ऐ दुनियावालों !
क्यों है ये बेइन्तहा मुश्किल?
कि कह सकें-कर सकें वो,
जो दिल करना चाहता हो।
कभी हमें भी था,
भरोसा अपने सपनों पर,
अब अहसास हो गया है कि,
सपने दूसरो के ही र॔ग लाते हैं।
न सोचूँ, न मैं चाहूँ,
न ही दे सकूँ मैं, दर्द किसी को,
पर ज़माने ने जैसे,
ये ठेका, मेरे लिये ही उठा रखा है।
आ जाये जो हँसी,
दिल भर आता है,
गर आ गये जो आँसू,
कहीं दम ही न निकल जाए।
अजीब है, यहां हर कोई पा जाता है,
जो उसकी चाहत है,
मज़ाक तो ये है कि,
अपनी चाहतें ही मर गयी सारी l
आज सब याद आ गया,
आता ही चला गया,
अब तो कुछ ऐसा हो कि,
यादें ही मिट जाएँ सारी।
मौलिक व् अप्रकाशित।
Comment
आदरणीय उषा जी आपने अपनी इस मोहक कविता में वास्तव में भावों को शब्दों में इस तरह पिरोकर उदगारित किया है कि ये कहना गलत न होगा-
रख दिया है कागज पर कलेजा निकालकर,आपके उदगार व्यावहारिक हैं ।
बधाई स्वीकारें।
आदरणीय उषा जी, अच्छी भावपूर्ण क्षणिकाओं के लिए हार्दिक बधाई!
मुहतरमा ऊषा जी आदाब,अच्छी क्षणिकाएँ लिखीं आपने,बधाई स्वीकार करें ।
'नशे में सब कुछ माफ हो'
इस पंक्ति में सहीह शब्द 'मुआफ़' है,देखियेगा ।
'जी लूँ कुछ,
इस तरह कि,
अगले जनम की भी,
चाह न रह जाए।
ऐ दुनियावालों !'
इस क्षणिका में 'जनम' को "जन्म" कर लें,और 'दुनिया वालों' शब्दों में दुनिया के बाद स्पेस दें ।
आदरणीय डॉ० उषा जी क्षणिकाओं की सराहना के लिए हार्दिक आभारI
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