ठण्डी गहरी चाँदनी
चिंताओं की पहचानी
काल-पीड़ित
अफ़सोस-भरी आवाज़ें ...
पेड़ों से उलझी रोशनी को
पत्तों की धब्बों-सी परछाई से
प्रथक करते
अब महसूस यह होता है
सपनों में
सपनों की सपनों से बातें ही तो थीं
हमारा प्यार
या उभरता-काँपता
धूल का परदा था क्या
विश्वासों में पला हमारा प्यार
आईं
व्यथाओं की ज़रा-सी हवाएँ
धूल के परदे में झोल न पड़ी
वह तो यहाँ वहाँ
कण-कण जानें कहाँ गया
झड़ गया
या, सपना था
खुलना था, खुल गया
उड़ते-उड़ते भटकते
कुछ-एक कण
ठहर गए आँखों के कोरों में
किरकिरी-से अटके
रात-बेरात तब से
अब बेचैन बीतती है रात
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय विजय निकोर साहिब, सादर नमस्कार .... अन्तस् की गुत्थियों का सजीव चित्रण करती इस बेहतरीन रचना के लिए दिल से बधाई।
आ. भाई विजय जी, सादर अभिवादन। उत्क्रिष्ट रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
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