आशंका के कगार
जानता हूँ
हर पिघलती सचाई में
फीकी सचाई के पार
कुछ झुठाई भी है
तभी तो आशंका की परतों के बीच
किसी भी परिस्थिति को परखते
किसी का झूठ जानते हुए भी
सचाई की लाश को मानो
थपकियाँ देते
कभी खिड़की का शीशा
कभी मन काआईना
कोना-कोना साफ़ करते
खिसक जाते हैं दिन
ज़िन्दगी हाथ फैलाए
मांगती है हिसाब
सारी सफ़ाई के बाद भी क्यूँ
किसी की दी सचाई पर फिर भी
आशंका की बारीक
पतली परत बाकी रह जाती है
फैलने लगता है रुधिर कोशों में
शनै: शनै: असत्य का ज़हर
ऐसे में न पूछो
बहुत मुद्दतों के बाद भी क्यूँ
उन्मन मन
चेहरा गहरा उदास
कर देता है हँसने से
साफ़ इनकार
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
मेरे भाई समर कबीर जी, आपका इस सुन्दर संदेश का उत्तर देना रह गया। आज अपनी पूर्व पोस्ट पर गया तो गलती का एहसास हुआ।क्षमाप्रार्थी हूँ, और आपसे मिली सराहना के लिए आभारी हूँ।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब,हमेशा की तरह एक शानदार कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणेय मित्र तेज वीर सिंह जी।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणेय मित्र लक्ष्मण जी।
हार्दिक बधाई आदरणीय विजय निकोरे जी।बेहतरीन प्रस्तुति।
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन। इस उत्तम रचना के लिए हार्दिक बधाई।
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन। इस उत्तम रचना के लिए हार्दिक बधाई।
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