काश मैं भी उड़ सकती
खुले विस्तृत गगन में
बादलों को चीरते हुए
और छू सकती आकाश
पर ये संभव ही कहाँ है
भाग्य के हाथों हूँ मजबूर
यूँ ही रोज़ खिड़की पर बैठना
और तकना है खाली व्योम
पर ये मन मानता ही नहीं
कल्पनाओं के पंखों पर सवार
उड़ता रहता है सुबहो शाम
इसे आता नहीं दूजा कोई काम
मन है कि मानता ही नहीँ ....
-प्रदीप देवीशरण भट्ट-मौलिक व अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया छोटे लाल जी
आदरणीय प्रदीप भट्ट जी बहुत बढ़िया भाव पिरोया है आपने, इस सुंदर रचना के लिए बहुत बहुत बधाई
आदरणीय प्रदीप देवीशरण भट्ट सर, सचमुच 'भाग्य' अहम भूमिका निभाता है जीवन में। सुंदर कविता के लिये बधाई स्वीकार करें। सादर।
वाह अंतर्मन के भावों का सुंदर चित्रण। ... हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय।
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