दोहे
तोड़ो चुप्पी और फिर, कह दो मन की बात
व्याकुल तपती देह पर, हो सुख की बरसात।१।
लाज शरम चौपाल की, यू मत करो किलोल
जो भी मन की बात हो, अँखियों से दो बोल।२।
मन से मन की बातकर, कम कर लो हर पीर
बाँध रखो मत गाँठ में, दुख देगा गम्भीर।३।
मन से निकलेगी अगर, दुखिया मन की बात
जो भी शोषक जन रहे, देगी ढब आधात।४।
कहना मन की बात नित, करके सोच विचार
जोड़े यह व्यवहार को, तोड़े यह व्यवहार।५।
माँ से मन की बात तब, रखी छुपाकर खूब
अब कहने की लालसा, क्यों मन को महबूब।६।
मन में दबकर रह गयी, हरदम मन की बात
कहना चाहा जब कभी, बने नहीं हालात।७।
कहते मन की बात वो, अपनी ही हर बार
सुनते तो चलता पता, कितना दुख का भार।८।
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई सलीम जी, प्रशंसा के लिए धन्यवाद।
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति से मान बढ़ाने के लिए आभार । आपकी सलाह बेहतरीन है । आभार।
भाई लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी बहुत अच्छे दोहे लिखे आपने,मुबारकबाद।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब,अच्छे दोहे लिखे आपने,बधाई स्वीकार करें ।
'तोड़ो चुप्पी और फिर, कहकर मन की बात
व्याकुल तपती देह पर, कर दो सुख बरसात'
इस दोहे को व्याकरण की दृष्टि से यूँ होना चाहिए:-
'तोड़ो चुप्पी और फिर,कह दो मन की बात
व्याकुल तपती देह पर,हो सुख की बरसात'
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन । दोहों पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।
आ. भाई सुरेंद्र जी, सादर अभिवादन। दोहों की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति से मान बढ़ाने के लिए आभार।
आपके लिखे दोहे बहुत अच्छे लगे। बधाई, मित्र लक्ष्मण जी।
आद0 लक्ष्मण धामी जी सादर अभिवादन। बढ़िया दोहावली हुई है,, बधाई स्वीकार कीजिये
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'जी। बेहतरीन दोहे।
कहते मन की बात वो, अपनी ही हर बार
सुनते तो चलता पता, कितना दुख का भार।
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