जाने कैसी विडम्बना जीवन की
जो इस दशा आ गिरी
ना कोई हमदर्द अपना
ना ही मेरा साथी कोई, ना किसी ने वेदना सुनी ||
आते-जाते सब देखते
मिलता ना अब तक बिरला कोई
मेरी सुने कभी अपनी सुनाये
आत्मीयता से मिले कभी ||
ना क्षुधा मुझे किसी के धन की
ना लोभ भी मन में कोई
कहीं पड़ा मिल जाता पाथेय
उससे अपना पेट भरी ||
आमूल तक मै टूट चुकी
महि मुझको कोष रही
व्रजपात सा होता हृदय
भिखारिन की जो आवाज सुनी ||
अब तो आदत सी हो गयी
निशि-दिवस का ध्यान नहीं
नवल सपनों के अंकुरो का भी
मुझको अब ना भान कोई ||
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
जनाब फूल सिंह जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
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