2122 2122 2122
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जानते हैं तुम में ताकत हो गयी है,
और किस-किस पे ये आफत हो गयी है।
झूठ है जो, झूठ बिन कुछ भी नहीं, पर
अब जमाने में सदाक़त हो गयी है।
जब चमन का फूल होने का भरो दम,
क्यों चमन से ही अदावत हो गयी है?
जिस्म पर ठंडा लबादा, आग मुँह में,
जिसने रक्खे उसकी शुहरत हो गयी है।
कौम के अच्छे की खातिर काम हो अब,
छोड़ दो काफ़ी सियासत हो गयी है।
हर खुशी पर, मेरी बोलो तो भला क्यों,
तुमको बस रोने की आदत हो गयी है?
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विनय निकोरे सर सादर आभार।
आदरणय रवि भसीन जी, सादर आभारं
आदरणीय सौरभ सर, सादर हार्दिक आभारं
आदरणीय भाई सुरेन्द्रनाथ जी, सादर हार्दिक आभार
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, सादरaabhaar
eआदरणीय आशीष यादव जी, हार्दिक आभारं
आदरणीय प्रदीप देवीशरण जी, उत्साहवर्धन के लिए सादर आभार
गज़ल अच्छी बनी है। बधाई, मित्र सतविन्द्र जी।
हर तरह से हो चुकी समझाइशें पर
नकचढ़ों को चिढ़ की आदत हो गयी है.
हार्दिक बधाइयाँ, भाई सतविंदर जी..
शुभ-शुभ
आदरणीय सतविन्द्र कुमार राणा जी, बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है, बधाई स्वीकार करें। ख़ास तौर से आपका ये शे'अर बहुत अच्छा लगा:
कौम के अच्छे की खातिर काम हो अब
छोड़ दो काफ़ी सियासत हो गयी है
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