जो दुनिया को सबका ही घर कहता है
वो क्यों मुझ को रहने से डर कहता है।१।
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हद से बढ़कर निजता का अभिमान हुआ
अब हर क़तरा खुद को समन्दर कहता है।२।
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मिट्टी की तासीरें जिस को ज्ञात नहीं
वो लालच में धरती बन्जर कहता है।३।
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ढोंगी है या फिर कोई अवतार लखन
मालिक बनकर खुद को नौकर कहता है।४।
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जिसके पास नहीं है दाना वो भी अब
मैं दाता हूँ, फैला चादर कहता है।५।
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भाटों ने क्या पाठ पढ़ाया उसको जो
बुत है खुद पर मुझको पत्थर कहता है।६।
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लूटपाट है जिसका पेशा पुरखोंं से
देखो तो वो खुद को रहबर कहता है।७।
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मौलिक.अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और निरन्तर प्रोत्साहन के लिए हार्दिक आभार।
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी।बेहतरीन गज़ल।
लूटपाट है जिसका पेशा पुरखोंं से
देखो तो वो खुद को रहबर कहता है।७।
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