२२२२/२२२२/२२२२/२२२
ये मत समझो मान के अपना गले लगाने आया है
जीवन में खुशियाँ कैसे हैं भेद चुराने आया है।१।
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अनहोनी सी लगती मुझको अब कुछ होने वाली है
नदिया के तट आज समन्दर प्यास बुझाने आया है।२।
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जिसके पुरखे भटकाने की रोटी खाया करते थे
वो कहता है आज देश को राह दिखाने आया है।३।
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जिस बस्ती को दसकों पहले हमने खूब सदाएँ दी
उस बस्ती को सूरज देखो आज जगाने आया है।४।
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अपने हिस्से तूफाँ तो थे माझी भी क्या खूब मिला
पतवारों को तोड़-ताड़कर यार बचाने आया है।५।
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कर्ज उधारी उपहारों की रीत धनिक के हिस्से में
कौन भला ऐसे निर्धन के ठौर ठिकाने आया है।६।
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मौलिक.अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई मनोज कुमार जी, सादर आभार।
अच्छी गजल हुई आदरणीय मित्र हार्दिक बधाई सतत प्रयत्नशील रहें सादर
आ. भाई समर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति और मार्गदर्शन के लिए आभार।
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
'जिस बस्ती को दसकों पहले हमने खूब सदाएँ दी'
इस मिसरे में 'दसकों' को ''दशकों" और 'दी' को "दीं" कर लें ।
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन । गजल पर मनोहारी प्रतिक्रिया के लिए आभार। ओबीओ परिवार के गुणी जनों के परामर्श से लेखन को सुधारने का प्रयास कर रहा हूँ । आपका स्नेहाशीष बना रहे यही आकाक्षा है । सादर...
आप गज़ल अच्छी लिखते हैं। हार्दिक बधाई, मित्र लक्ष्मण जी।
आ. भाई रवि भसीन जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय मुसाफ़िर भाई, सादर अभिवादन। इस सुंदर रचना के लिए आपको हार्दिक बधाई।
आ. भाई तेजवीर जी, सादर अभिवादन। आपको गजल अच्छी लगी, लेखन सपल हुआ। स्नेह एवं उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी। लाज़वाब गज़ल।
जिसके पुरखे भटकाने की रोटी खाया करते थे
वो कहता है आज देश को राह दिखाने आया है।३।
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जिस बस्ती को दसकों पहले हमने खूब सदाएँ दी
उस बस्ती को सूरज देखो आज जगाने आया है।४।
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