ग़ज़ल- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
लिखा है गर जो किस्मत में तो फिर बदनाम ही होलें
न बाइज़्ज़त तो बेइज़्ज़त तुम्हारे नाम ही होलें
न कुछ करने से अच्छा है तू वादा तोड़ ही डाले
न हों कामिल वफ़ा में तो दिले नाकाम ही होलें
न हो महफ़िल तुम्हारी तो किसी महफ़िल में रोलें हम
चलो हम आज कूचा ए दिले बदनाम ही होलें
मुझे रिज़वान रख लें वो बहिश्ते ख़ूब रूई का
घड़ी भर को कभी मेरे वो हमआराम ही होलें
जो हों जन्नतनशीं तो ग़ालिबन फिर साथ में तेरे
कभी हम सैर पे जाएँ कभी हम्माम ही होलें
ग़ज़ल है गुफ़्तगू उनसे तवक़्क़ो में कभी शायद
वो वाबस्ता ज़रीआ ए ख़त-ओ-पैग़ाम ही हो लें
ख़ुदा मुस्तैद कर मुझको तेरे ग़ैबी निज़ामों में
दिले बेगार से पूरे तेरे कुछ काम ही होलें
चलो तुम ‘राज़’ को दे दो सभी झगड़े सुलह करने
कि इसके हाथ नेकी ओ जज़ा अंजाम ही होलें
~ राज़ नवादवी
रिज़वान- स्वर्ग का द्वारपाल; बहिश्त- स्वर्ग; तवक़्क़ो- अपेक्षा, उम्मीद; बावस्ता- सम्बद्ध; ग़ैबी- पारलौकिक; निजाम- व्यवस्था; जज़ा- प्रत्युपकार
"मौलिक एवं अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय अफ्रोज़ सह्र साहब, आपका हृदय से आभार. हां, पहला रुक्न १२२२ की जगह १२२२२ गलती से टाइप हो गया है. धन्यवाद नज़र में लाने के लिए, सादर
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