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हल्द्वानी में आयोजित ओ बी ओ ’विचार गोष्ठी’ में प्रदत्त शीर्षक पर सदस्यों के विचार : अंक 6

अंक 5 पढने हेतु यहाँ क्लिक करें…….

आदरणीय साहित्यप्रेमी सुधीजनों,
सादर वंदे !

ओपन बुक्स ऑनलाइन यानि ओबीओ के साहित्य-सेवा जीवन के सफलतापूर्वक तीन वर्ष पूर्ण कर लेने के उपलक्ष्य में उत्तराखण्ड के हल्द्वानी स्थित एमआइईटी-कुमाऊँ के परिसर में दिनांक 15 जून 2013 को ओबीओ प्रबन्धन समिति द्वारा "ओ बी ओ विचार-गोष्ठी एवं कवि-सम्मेलन सह मुशायरा" का सफल आयोजन आदरणीय प्रधान संपादक श्री योगराज प्रभाकर जी की अध्यक्षता में सफलता पूर्वक संपन्न हुआ |

"ओ बी ओ विचार गोष्ठी" में सुश्री महिमाश्री जी, श्री अरुण निगम जी, श्रीमति गीतिका वेदिका जी,डॉ० नूतन डिमरी गैरोला जी, श्रीमति राजेश कुमारी जी, डॉ० प्राची सिंह जी, श्री रूप चन्द्र शास्त्री जी, श्री गणेश जी बागी जी , श्री योगराज प्रभाकर जी, श्री सुभाष वर्मा जी, आदि 10 वक्ताओं ने प्रदत्त शीर्षक’साहित्य में अंतर्जाल का योगदान’ पर अपने विचार व विषय के अनुरूप अपने अनुभव सभा में प्रस्तुत किये थे. तो आइये प्रत्येक सप्ताह जानते हैं एक-एक कर उन सभी सदस्यों के संक्षिप्त परिचय के साथ उनके विचार उन्हीं के शब्दों में...


इसी क्रम में आज प्रस्तुत हैं ओ बी ओ प्रबंधन सदस्या डॉ प्राची सिंह जी का संक्षिप्त परिचय एवं उनके विचार.....

परिचय :

नाम- डॉ० प्राची सिंह

जन्मस्थान- रुद्रपुर (उत्तराखंड)

जन्मतिथि-15 अक्टूबर, 1977

पिता श्री अशोक जायसवाल जी विवेकानंद एजुकेश्नल सोसायटी के संस्थापक व प्रबंधक और कई शैक्षणिक संस्थानों के प्रमुख सचिव हैं. तथा माँ एक अत्यंत अनुशासन पसंद प्रधानाचार्या हैं. अनुशासन का आपके जीवन में बाल्यकाल से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है. माता व पिता दोनों के साहित्य के प्रति अत्यंत अनुराग नें इनके हृदय में पुस्तकों व ज्ञान के प्रति सम्मान व प्रेम की नींव रखी.

प्रारंभिक शिक्षा उत्तराखंड व उत्तरप्रदेश में हुई व उच्च शिक्षा आपने वनस्थली विद्यापीठ राजस्थान से प्राप्त की. वनस्थली विद्यापीठ की सात्विक अनुशासित शिक्षा दीक्षा ही आपके सात्विक जीवन का आधार बनी. रसायन विज्ञान और वनस्पति विज्ञान, दो विषयों में स्नातक ऑनर्स के बाद आपने पर्यावरण विज्ञान विषय में स्वर्ण पदक के साथ स्नातकोत्तर की शिक्षा गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार से प्राप्त की. आपने यू०जी०सी०-नेट की परिक्षा भी स्कोलरशिप के साथ उत्तीर्ण की. ‘मरुस्थल के विस्तार को कम करने में प्रयुक्त की जा सकने वाली औषधीय व बहु-उद्देशीय प्रजातियों के अंकुरण की तकनीकें’ विषय पर आपने वनस्थली विद्यापीठ से ही शोध कार्य (पी०एच०डी०)पूर्ण किया. साइंस एंड टेक्नोलॉजी विभाग द्वारा 2001 में आपको यंग साइंटिस्ट एवार्ड भी मिला. लीड इंटरनेशन के साथ ब्रिटिश हाई कमीशन फंडेड ‘क्लाइमेट चेंज लीडर’ प्रोजेक्ट में आपको एक लघु-शोध पूरा करने पर ग्रेजुएट की उपाधि भी मिली. कई राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में आपके शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं.

संप्रति, डीन एकैडमिक्स – एम० आई० ई० टी० – कुमाऊँ इन्जीनियरिंग कॉलेज के तौर पर हल्द्वानी में कार्यरत हैं, व अपनी निजी टिम्बर बेस्ड औद्योगिक इकाई में बतौर जनरल मैनेजर कारपोरेट वर्ड से सीधे सम्बद्ध हैं.

कई आध्यात्मिक संगठनों से आपकी आत्मीयता है. आध्यात्मिक चिंतन और रुझान के कारण आपने सिद्धा ध्यान, शाम्भवी विद्या व श्री विद्या की अद्वैत साधना की दीक्षा प्राप्त की है. यही आपके जीवन दर्शन की आधारशिला है.

आपके अनुसार साहित्य लेखन में आपकी रूचि ओबीओ की ही देन है. आप जो कुछ भी छंदबद्ध, छंदमुक्त या अतुकान्त जिस भी प्रारूप में लिख पाती हैं सब इस पावन मंच से संलग्न होने पर ही आपने सीखा है.

आपकी बाल-कथा ‘परी और नन्हे बच्चे’ को विश्व हिंदी दिवस-वर्ष २०११ का मनोरमा विशिष्ट संबोधन पुरूस्कार का सम्मान मिला. आपकी कवितायेँ त्रिसुगंधि में प्रकाशित हुई, और कई कवितायेँ अन्य पुस्तकों में प्रकाशनाधीन हैं.

अभिरुचियाँ – पठन-पाठन, अध्यापन, लेखन, व पोर्ट्रेट स्केचिंग

डॉ० प्राची सिंह जी का उद्बोधन :

सम्माननीय ओबीओ प्रबंधन मंडल, आदरणीय मुख्य अतिथि महोदय, विशिष्ट अतिथि गण, और ओबीओ परिवार के सभी सदस्यों !
मैं बहुत ज्यादा खुश हूँ आप सबको यहाँ अपने ही गृहस्थान पर देख कर..........

हमसब आज इस साहित्यिक गोष्ठी में यहाँ हैं, एक साथ, ये अंतरजाल की ही देन है. हम अंतरजाल के कारण साहित्यिक चर्चा के लिए आज एकत्रित हुए हैं. आज का जो विचार गोष्ठी का विषय रखा गया है “अंतरजाल का साहित्य में योगदान” या साहित्य में अंतर्जाल का क्या महत्व है, यह विषय बिन्दु बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है. अंतरजाल का हमसभी अच्छे से प्रयोग करते हैं... 
मुझे ऐसा लगता है जैसे साहित्यिक साइट्स की, साहित्यिक ब्लोग्स की एक बाढ़ सी आई हुई है... लोग हर तरीके का साहित्य लिख रहे है. लेकिन ये समझना बहुत ज़रूरी है कि साहित्य होता क्या है? क्या कुछ भी लिख देना, अभिव्यक्त कर देना साहित्य है? ये समझ मैंने ओबीओ पर पायी है - कि साहित्य वास्तव में है क्या ? 

आज से बीस साल पहले... संभवतः मैं इलेवेंथ क्लास में पढ़ती थी, मैंने अपनी पहली कविता लिखी थी, माँ पर ! दो पंक्तियाँ भी उसकी अब तक मुझे याद हैं... “है तुझमें ये कैसी शक्ति, होती नहीं जिसकी अभिव्यक्ति...दिव्य स्रोत तेरा जीवन है, जीवन मेरा तुझको अर्पण है..” लेकिन वो कविता दो पन्नों की कविता थी.. लम्बी कहानी जैसी कविता  और जब भी मन में भावों का उफान आता था मैं ज़रूर उसे डायरी में लिखती थी..

लेकिन आज से एक साल पहले तक (मार्च 2012 तक) मैनें अपनी कोई कविता किसी के सामने कभी नहीं पढ़ी. क्योंकि मुझे अपने पर ये यकीन ही नहीं था कि ये ऐसी हैं जिनको मैं पढ़ भी सकती हूँ... और वास्तव में आज मुझे लगता है मैं  क्या लिखती थी......मैं उसे कविता कहती थी.....वो था क्या ?

एक मित्र ने ओबीओ साईट को बताया, तो मैंने ओपन बुक्स ऑनलाइन को ज्वाइन किया. और जिस दिन से मैंने ओपन बुक्स ऑनलाइन को ज्वाइन किया, यकीन मानिए महीने या दो महीने में एक बार ही फेसबुक खोलती हूँ .... इंट्रस्ट ही नहीं रहा. निरर्थक बातें करके , साहित्य के बारे में निरर्थक चर्चा करके क्या सीखूंगी मैं? क्या मुझे टाइम-पास करना है ..साहित्यिक ज्ञान के लिए ?.....नहीं मुझे नहीं करना. यानि अंतरजाल में भटकाव भी हैं. 

तो हमें बहुत अच्छे से समझना होगा कि अंतरजाल में जो रचनाओं की बाढ़ आई  है. वो क्या है? हम किसको साहित्य कह रहे हैं? क्या वो साहित्य है? हमें ये परख देने वाला ओपन बुक्स ऑनलाइन है.  यहाँ हम कहानी, कविता, अभिव्यक्ति, गीत, छंद, आलेख लिखते हैं और सीखते हैं. 

‘साहित्य’ यानि, ‘स हित’. यानि “जिसमें हित समाहित हो – सहित’ “ऐसी अभिव्यक्ति जिसमें हित समाहित हो, वो साहित्य है”. प्रश्न उठता है, हित किसका? हित जनता का, जन-जन का हित. लिखने वाले का हित.. क्योंकि जो हम लिखते हैं, अभिव्यक्त करते हैं, अपने आप को परिष्कृत करते हैं. अपनी अभिव्यक्ति के ज़रिये हम अपने आत्मविश्वास को स्वयं ही बढ़ाते हैं. क्या हम ऐसा लिखते हैं जिसे लोग सुनना पसंद करें? हमारे लिखने के पीछे का मकसद क्या है? क्या किताबें छाप देना हमारा मकसद है? मुझसे लोग पूछते हैं कि आप किताब क्यों नहीं प्रकाशित करवातीं ? मैं कहती हूँ, मैं चाहे अपनी ज़िंदगी में एक किताब लिखूं लेकिन वो किताब ऐसी होनी चाहिये कि एक एक पन्ना उसका ऐसा हो कि हरेक की संवेदना को छुए, हर एक के जीवन को एक सोच दे, एक दर्शन दे.. वो साहित्य होना चाहिये.

और मेरी नज़र में अच्छा साहित्य है - कथ्य सांद्रता, भाव प्रवणता. कुछ भी लिख डालना साहित्य नहीं है. अच्छे साहित्य की परख जो एक मुख्य बिंदु मुझे लगता है...”शब्द और उसके अर्थ... उनमें जब आपस में होड़ हो जाए कि शब्द सुन्दर है कि इसका अर्थ सुन्दर है” और हम जब तय ही न कर पायें..अर्थ भी इतना सुन्दर हो कि हम उससे ज्ञान पायें, हम उसको सीख कर के आगे बढ़ें.. हममें भी कुछ ग्रोथ तो हो.. हम कुछ सीखें तो सही..

क्या निरी संवेदनाएं.. विरह रस में लिख दी कविता, अपने मन को अभिव्यक्त कर दिया..क्या वो साहित्य है? प्रेम रस में लिख दिया.. दुनिया नें ग़ज़लें लिख डालीं प्रेम रस पे.. क्या ये साहित्य है? ये तो सिर्फ आपके मन में भाव आया और आपने लिख दिया.. इसमें किसका हित? इसके लिए मार्गदर्शन तो यह है कि सीखने आवश्यकता है जिसे आज अंतरजाल उपलब्ध कर रहा है. 

फिर बहुत ज़रूरी है आज कि हम इस चीज़ को समझें कि हमें भ्रमित होने से बचना है और ये भ्रमित होने से हमें कोई और नहीं बचायेगा, बल्कि हमारा नज़रिया ही हमें बचायेगा. ब्लॉग्स बहुत हैं, साहित्यिक साइट्स भी बहुत हैं, सिखाने वाले भी बहुत हैं. मगर सच यह भी है कि सीखना कौन क्या चाहता है ? किसकी कितनी पात्रता है. हम सबसे पहले अपने को सुपात्र तो बनाएँ. वो तो हमारे हाथ में है. जब हम सुपात्र बनते जायेंगे तो ज्ञान अपने आप आता जाएगा. तो सबसे पहले सीखने के लिए विनम्र होना बहुत ज़रूरी है.

ओपन बुक्स ऑनलाइन से मैं जुड़ी, तो मैंने एक सात्विक माहौल देखा सीखने का. गुरु शिष्य परम्परा भी नहीं कहूंगी इसे मैं (आज कल उसे भी दूसरे ही संकीर्ण अर्थों में लिया जाता है) उससे भी बहुत परे है. ओबीओ सिर्फ एक परिवार ही है. जिसमें एक पिता पुत्री को सिखाता है, एक भाई बहन को सिखाता है, दोस्त भी दोस्त को सिखाता है.. सभी एक दूसरे को सिखाते हैं, सब एक दूसरे से सीखते हैं... कोई भी किसी से भी सीखता है.. सिर्फ जो अच्छी बाते हैं हम उनको ग्रहण करते हैं. अंतरजाल की यह सबसे बड़ी देन है साहित्य को. 


आज से एक साल पहले अगर मुझे किसी कवि सम्मलेन में बुलाया जाता तो शायद मेरे पास मेरी एक भी रचना नहीं होती जो मैं पढ़ पाती. लेकिन आज मुझे खुशी है, कि मैं कन्फ्यूज़ हूँ मैं दोहे सुनाऊँ, कुंडलिया सुनाऊँ, हरिगीतिका छंद सुनाऊँ, रूपमाला छंद सुनाऊँ, सवैया सुनाऊँ, कुण्डलिया बोलूँ याँ त्रिभंगी छंद सुनाऊँ.. ओबीओ नें मुझे इतना कुछ दिया है ! गीत सुनाऊँ, नवगीत सुनाऊँ ! अंतरजाल के माध्यम से साहित्य की लुप्तप्राय विधाएँ तक संग्रहीत की जा रही हैं. यह कम बड़ा काम नहीं है. 

मैंने साहित्य क्या है.. इस विषय पर एक हरिगीतिका छंद लिखा था कि साहित्य क्या धर्म है ? धर्मिता क्या है ? 

आध्यात्म दृढ़ आधार ही विज्ञान का विस्तार है /
दोनों सिरों को जोड़ता साहित्य का संसार है //
साहित्य रचना धर्मिता दायित्व है सद्बोध है /
हर पंथ मज़हब से बड़ा इस धर्म का उद्बोध है //1//

प्रति धर्म हो सद्भावना यह भाव भारत प्राण है /
इस चेतना सुरधार में प्रति क्षण बसा निर्वाण है //
गंगा हृदय में पावनी जब प्रेम की अविरल बहे /
एकत्व प्रज्ज्वल ज्ञान में मन कुम्भ को हज सम कहे //2//

संकेत संगम बाह्य पर निर्वाण निज में व्याप्त है /
जिसने मनस को साध कर खोजा उसी को प्राप्त है //
सद्ज्ञान से परिपूर्ण मन में राष्ट्र का दर्पण दिखे /
समुदाय को दे प्रेरणा साहित्य वह दर्शन लिखे //3//

तो मुझे लगा कि साहित्य ये है. अंतरजाल क्या है उसे हम सब जानते हैं, भ्रमित हमें नहीं होना है, साहित्य की परख रखनी है, और ऐसा साहित्य लिखना है जिसे आने वाली पीढियाँ इस तरह पढ़ें. जैसे आज हम रामायण को पढते हैं, महाभारत हो पढते हैं, गीता को पढ़ते हैं. वैसा हम साहित्य लिखें..

धन्यवाद. 

अगले सप्ताह अंक 7  में जानते हैं  श्री रूप चन्द्र शास्त्री "मयंक" जी  का संक्षिप्त परिचय एवं उनके विचार.....

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 7, 2013 at 7:50pm

प्रिय अनुज अरुण शर्मा जी 

आपके स्नेह सम्मान के लिए बहुत बहुत आभारी हूँ.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 7, 2013 at 7:47pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी, 

आपके आशीर्वचनों और स्नेहिल शुभकामनाओं के लिए बहुत बहुत आभारी हूँ..

ओबीओ सदस्यों का सदस्य मिलन, साहित्यिक गोष्ठी ,काव्य सम्मलेन था ही इतना आत्मीय कि बिन कहे, बिन प्रदर्शित किये भी सिर्फ स्नेह अपनत्व में ही स्थापित से हो गए थे सब, मन्त्र मुग्ध से एक दूसरे की बातों को सुनते समझते, काव्य सरिता में आनंदित होते..

मेरे मन में भी आपके लिए ऐसे ही विचार थे.. सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 7, 2013 at 7:38pm

आदरणीय भाई अभिनव अरुण जी 

आपकी आत्मीयता भरी टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद! 

आपने जिस सहजता से तुरंत मंच सम्हाला था उसकी जितनी भी तारीफ़ करूँ कम ही प्रतीत होती है अरुण जी.. कुशलतम मंच संचालन की एक मिसाल सा था आपका संचालन.. आपको तहे दिल से धन्यवाद!

पूरा परिदृश्य मनस पटल पर दौड़ जाता है.. 

आज भी जब उस सेमीनार हॉल में कोई आयोजन होता है तो ओबीओ की गोष्ठी कवि सम्मलेन ज़रूर याद आता है.. और मन अंतर में एक आत्मीय मुस्कान छा जाती है..

सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 7, 2013 at 7:21pm

आ० केवल प्रसाद जी 

आपकी सदाशयता के लिए हृदय से आभारी हूँ 

सादर धन्यवाद 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 7, 2013 at 6:18pm

डॉ प्राची सिंह जी बेटी सम होते हुए भी मेरे लिए उसी तरह आदरणीया है जैसे भीष्म पितामह के लिए श्री कृष्ण |

इनकी विद्वता, सहिष्णुता, शिक्षा की भूख और सादगी जैसे लक्षण से मेरे मन में आदरणीया बन गयी | यह बिलकुल

सही है कि जब तक आम आदमी को, समाज और राष्ट्र को लाभ न हो, विकास का मार्ग न बने तब तक उसे सद साहित्य

नहीं का सकते | विज्ञान (क्रम बद्ध ज्ञान),आध्यात्मिक, बौद्धिक, सामाजिक सभी क्षेत्र में साहित्य का अनूठा योगदान है |

इनका महत्व का सुन्दर तरीके से डॉ प्राची सिंह जी ने विश्लेषात्मक संक्षिप्त वर्णन करने का प्रयास किया है |  

उनको हार्दिक साधुवाद

 

Comment by ram shiromani pathak on September 7, 2013 at 1:32pm

आदरणीया प्राची जी के बारे इतनी विस्तृत जानकारी साझा करने के लिए बहुत बहुत आभार  //आप बहुमुखी प्रतिभ से संपन्न है यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई //वैसे भी आदरणीया प्राची जी की रचनाये स्वयं ही उनका परिचय है // मेरे साहित्यिक जीवन में पांच  लोगों  की बहुत ही बड़ी भूमिका रही है, आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी ,आदरणीय गणेश जी ,आदरणीय भाई ब्रिजेश जी ,आदरणीय भाई अरुण शर्मा जी व् आदरणीया प्राची जी //  मुझे  मात्रा  गणना करना भी नहीं आता था ,आदरणीया प्राची जी ने मुझे अपना अमूल्य समय देते हुए ,छंदों की जानकरी ,मात्रा गणना तथा लिखने के लिए मुझे प्रेरित किया //जिसके लिए मै उनका जीवन भर आभारी रहूंगा //आदरणीया प्राची जी को सादर प्रणाम 

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 7, 2013 at 11:56am

वाह आदरणीया प्राची दीदी के बारे में इतना कुछ पढ़कर एवं उनके विचारों को जानकार मन प्रसन्न हो उठा. आदरणीया प्राची दी सादर प्रणाम.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 7, 2013 at 11:38am

जीवन परिचय के साथ प्रिय प्राची जी के   उद्बोधन  को दुबारा समझने का अवसर मिला उनके जीवन  परिचय और लेखन परिचय दोनों ही प्रभाव शील हैं ,हल्द्वानी में उनसे   साक्षात मिलकर बस ये पंक्तियाँ दिल में मुखरित हो उठी थी यथा सूरत तथा सीरत ,सौम्यता की प्रतिमूर्ति लगी मुझे, मेरा आशीर्वाद हमेशा उनके  साथ है ,इस पोस्ट के लिए प्राची जी और एडमिन जी दोनों को बधाई।  

Comment by Abhinav Arun on September 7, 2013 at 3:47am

..बहुत सार्थक ..सटीक ..आत्मीयता भरे उदगार . डॉ साहिबा के  | बहुत बधाई और शुभकामनायें ! मेधा संपन्न मनीषा का साहित्य से संयोग सोने पे सुहागा है ..साधुवाद !!

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 6, 2013 at 8:38pm

             आ0 एडमिन जी, सादर प्रणाम! हम सभी पहले भी पढ़ चुके हैं कि आभाषीय/अन्तर्जाल की दुनिया में हमारा क्या स्थान है? इसका उपयोग और लाभ किस तरह लिया जा सक्ता है। शायद इसी के परिप्रेक्ष्य में यह क्रमानुगत परिचर्चा के रूप में ओ0बी0ओ0 के सम्मानित सदस्यों की विचारधारा प्रकाशित हो रही है। इस प्रथा/कार्य को सर्वसम्मत से अंगीकृत किया जा चुका है। जिसके लिए आप और आो0बी0ओ0 का परिवार हार्दिक बधाई का पात्र है।

              आज के क्रम में आदरेया डा0 प्राची मैम के विचारों को पढ़कर विशद साहित्य के विकास पर अन्तर्जाल का आवरण स्वतः स्पष्ट हो गया और इसका उद्देश्य व उपयोग की महत्ता भी अपना सुगम और सरसता का मार्गदर्शन कर रहा है। व्यक्ति चाहे कोई भी हो वह आदर और सत्य की चाहत रखता है। यह हिन्दी साहित्य सदैव अपनी सत्यता और सम्मानपूर्ण स्थान के लिए प्रयत्नशील है। और अब वह दिन दूर नहीं जब हम गर्व से कह सकेंगे कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। इस गौरवमयी योगदान से हमें सुसंस्कृत विचारधारा की एक अलग गंगा बहानी ही होगी। जय हिन्द.....! इस ब्लाग में आपके सम्मान और सार्थक विचारधारा हेतु आपको ढ़ेरों शुभकामनाओं सहित बहुत-बहुत हार्दिक बधाई। सादर,

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