दोहा मुक्तिका:
नेह निनादित नर्मदा
संजीव 'सलिल'
*
नेह निनादित नर्मदा, नवल निरंतर धार.
भवसागर से मुक्ति हित, प्रवहित धरा-सिंगार..
नर्तित 'सलिल'-तरंग में, बिम्बित मोहक नार.
खिलखिल हँस हर ताप हर, हर को रही पुकार..
विधि-हरि-हर तट पर करें, तप- हों भव के पार.
नाग असुर नर सुर करें, मैया की जयकार..
सघन वनों के पर्ण हैं, अनगिन बन्दनवार.
जल-थल-नभचर कर रहे, विनय करो उद्धार..
ऊषा-संध्या का दिया, तुमने रूप निखार.
तीर तुम्हारे हर दिवस, मने पर्व त्यौहार..
कर जोड़े कर रहे है, हम सविनय सत्कार.
भोग ग्रहण कर, भोग से कर दो माँ उद्धार..
'सलिल' सदा दे सदा से, सुन लो तनिक पुकार.
ज्यों की त्यों चादर रहे, कर दो भाव से पार..
* * * * *
Comment
आदरणीय आचार्य जी, एकदम से अपवाद को नवसिखुआ रचनाकारों के मध्य प्रतिष्ठा के साथ प्रस्तुत करना न केवल भ्रम का वातावरण उपस्थित करता है बल्कि रचनाकर्म में अध्ययन कर रहे रचनाकारों को मानक नियमों के लिहाज से किंकर्तव्यविमूढ़ भी कर देता है.
यहाँ दोहा छंद के नियमों पर बात चली है. इस विषय पर जब इतनी स्पष्ट व्याख्याएँ और नियमावलियाँ साझा हो चुकी हैं, तो अलहदे से उदाहरण को प्रस्तुत कर, आदरणीय, हम कौन सा सकारात्मक पहलू स्थापित कर रहे हैं ? क्या रचनाकारों को उलझाना उचित है ?
देश-प्रेम इब घट रह्या, बलै बात बिन तेल।
देस द्रोहियां नै रच्या, इसा कसूता खेल।।
मैं इन लक्ष्मण सिंह साहब का समृद्ध परिचय और उनकी सार्वभौमिक पहुँच पर बाद में पूछना चाहूँगा या नहीं भी पूछूँगा, पहले यह स्पष्ट निवेदन करूँ कि इस दोहा के विषम चरण के अंत में दो गुरु दीख अवश्य रहे है लेकिन ऐसा है नहीं.
इस दोहा की भाषा आदरणीय खड़ी बोली नहीं है, हरियाणवी है, जिस पर ब्रज भाषा से मिलते-जुलते क्रियापदों का प्रयोग है. यथा, रह्या, रच्या. इन दोनों में ह्य या च्य एक गुरु हैं नकि संयुक्ताक्षर.
आंचलिक भाषा के रह्यौ, रह्या, ह्वै, भ्या आदि आदि पद (शब्द नहीं) एक गुरु स्वर का उच्चारण रखते हैं, इसी कारण वृतों में या गेय पदों में इनका विशद प्रयोग हुआ है जो अधितर आंचलिक भाषा में हैं.
यथा, प्रभु व्याप रह्यौ सचराचर में तजि बैर सुभक्ति सजौ मतिमान (अरिन्द सवैया का एक पद)
यहाँ रह्यौ को देखा जा सकता है. जो गुरु गुरु (ऽऽ) के विन्यास पर नहीं बल्कि लघु गुरु (।ऽ) के विन्यास पर है.
आगे, विषम चरण हेतु नियमावलि भी स्पष्टतः यह भी कहती है --
जिस विषम की बनावट त्रिकल के पश्चात् त्रिकल, फिर द्विकल, फिर त्रिकल, फिर द्विकल हो, यानि ३+३+२+३+२ हो तो उसका चौथा समूह जो त्रिकल का है उसमें लघु गुरु (।ऽ) नहीं पड़ना चाहिये, यथा, "राम राम गाव भाई" इसी विन्यास पर है, वह शब्द विन्यास "राम राम गावहु सदा" या "राम राम गावो सदा" होना चाहिये.
फिर, जिस विषम की बनावट चौकल क बाद चौक, फिर त्रिकल, फिर द्विकल हो, यानि ४+४+३+२ हो, तो तीसरा समूह जो त्रिकल का है वह कभी लघु गुरु (।ऽ) रूप से न आवे. जैसे, "सीता सीता पती को" की जगह "सीता सीतनाथ को" होना चाहिये.
कहना न होगा कि, ऐसा स्पष्ट निर्देश दोहे के विषम चरण का अंत यगण (।ऽऽ), मगण (ऽऽऽ), भगण (ऽ।।) से बचने के लिए ही है.
सर्वोपरि, हम इक्का-दुक्का वाले, जहाँ-तहाँ के, ऐसे-वैसे उन प्रयोगों से क्यों न बचें और बचायें जो कण्ट्रोवर्सियल तो हैं ही, माहौल को भी विवदास्पद बना देते हैं ? खूब सीख-समझ लेने के बाद रचनाकार चाहे स्वयं जो प्रयोग करता फिरे.
सादर
प्राची जी तथा अन्य साथी
कृपया, निम्न दोहों पर दृष्टिपात कर अपने मत से अवगत करायें की ये दोहे सही हैं या गलत?
*
शांति-स्नेह-सुख सदा ही, करते वहाँ निवास।
निष्ठा जिस घर माँ बने, पिता बने विश्वास।। - पद्म श्री नीरज
*
ये कैसी बारीकियाँ, कैसा तंज महीन?
हम बोले 'मर जाएँगे', वो बोले 'आमीन'।। - यश मालवीय
*
कब तक सहते जाओगे, शीर्ष-लेख अनुमान।
घोर तिमिर में ही छिपा, मंगलमूल विहान।। - स्व. डॉ. गणेशदत्त सारस्वत
*
भेद-भाव को भूलकर, देखेगा जिस ओर।
पल भर में जुड़ जायेगी, संबंधों की डोर।। - डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल
*
क्वांरी आँखें खोजतीं, सपनों के सिर मौर।
चार दिनों के लिए है, यह फागुन का दौर।। - डॉ. राजकुमार तिवारी 'सुमित्र'
*
निज अर्जुन के शरों ने, किया गात जब बिद्ध।
मांस नोचकर खा गए, अपने पाले गिद्ध।। - ओम प्रकाश तरकर
*
सर ढकने का प्रिया को, समझाता पति मर्म।
जेठ न घर में सही पर, हवा जेठ की गर्म।। - ओम प्रकाश तरकर
*
मन्दिर-मस्जिद जल रहे, सुलग रही है आग।
कब तक सोता रहेगा, जाग कबीर जाग।। - डॉ. ओम प्रकाश सिंह
*
भाव-भक्ति संगम चलो, मन कर लें आनंद।
सरे पट खुल जायेंगे, जन्म-जन्म से बंद।। - कृपा शंकर शर्मा 'अचूक'
*
मिले न ग्राहक दुखों के, खुशियाँ बिकीं उधार।
बस यूं ही चलता रहा, जीवन का व्यापार।। - जय चक्रवर्ती
*
जग-सरिता में मीन हम, मछुआरा है काल।
सब के सब बिंध जाएँगे, जब आयेगा काल।। - पवन गुप्ता 'तूफ़ान'
*
बन्दूकों की राह से, पनपेगा विध्वंस।
रावण क्या समझाएगा, क्या बोलेगा कंस?? - प्रभु त्रिवेदी
*
हमसे उजली ना सही, राजपथों की शाम।
जुगनू बनकर आएँगे, पगडंडी के काम।। - माणिक वर्मा
*
प्रथम सूचना दर्ज कर, थानेदार विमुक्त।
विचर रहा निर्द्वन्द्व हो, हत्या का अभियुक्त।। - मुनीर बख्श 'आलम'
*
जंगल-जंगल घूमते, आखेटक दिन-रात।
कैसे अब बच पायेगी, मृग छौनों की जात।। - दिनेश रस्तोगी
*
अखबारी सुबहें करें, जरी नए बयान।
फिर शिकार के वास्ते, बँधने लगे मचान।। - डॉ. राधेश्याम शुक्ल
*
युद्ध-भूमि जैसे हुए, मन के सारे कोण।
कहीं नपुंसक योद्धा, कहीं धनुर्धर द्रोण।। -राम बाबू रस्तोगी
*
भले कार्य के पुण्य की, जल्द न कर उम्मीद।
फल अवश्य ही मिलेंगे, भले न मिले रसीद।। - रामेश्वर हरिद
*
जीवन के प्रति आस्था, ईश्वर पर विश्वास।
चिंताएँ सब दूर हों, मन में रहे उजास।। - उपाध्याय विजय मेरठी
*
सुख-दुःख दोनों हैं सखे, अहंकार के धर्म।
नित्यानन्दित आत्मा, 'सार्थ' समझिए मर्म।। - सार्थ
*
मंजरी जी, प्राची जी,
शुभ स्नेह.
काव्य विधाओं की बारीकियों में आपकी रुचि प्रशंसनीय है.
सुधी काव्य रसिक को रचना रुचिकर प्रतीत होना रचनाकार के लिए पुरस्कार सदृश है.
संशय निवारण:
१. नेह निनादित नर्मदा, नवल निरंतर धार.
भवसागर से मुक्ति हित, प्रवहित धरा-सिंगार..
आदरणीय क्या यहाँ सिंगार की मात्रा ४ ली गयी है और अनुस्वार का उच्चारण नहीं करना है..?
श्रृंगार के उच्चारण में 'श्रृं' का उच्चारण दीर्घ होता है. 'सिंगार' में 'सिं' उच्चारण 'सिंह' की तरह लघु है. 'सिंहनी' में 'सिं' का उच्चारण 'सिन्हा' के 'सिन्' की तरह है. उच्चारण में अंतर से मात्रा के प्रकार और भार में अंतर होगा.
२.
कर जोड़े कर रहे है, हम सविनय सत्कार.
भोग ग्रहण कर, भोग से कर दो माँ उद्धार..
हमनें दोहा शिल्प में मंच पर ही उपलब्ध जानकारी से सीखा है, कि दोहा छंद में विषम चरण का अंत लघु-गुरु (१२) या लघु-लघु-लघु (१११) से करते हैं....क्या दोहा-मुक्तिका में हम दोहा शिल्प से इतर, विषम चरण का अंत मुक्त तरीके से (यथा-२२ से )भी कर सकते हैं?
३. यही संशय अंतिम दोहे में भी है जहां विषम चरण का अंत २२ से हुआ है..
'सलिल' सदा दे सदा से, सुन लो तनिक पुकार.
आपकी जानकारी सही है. सामान्यतः विषम चरणान्त लघु-गुरु अथवा लघु से किया जाना चाहिए किन्तु गुणी दोहाकारों ने लय प्रभावित न होने पर अपवाद स्वरुप गुरु गुरु भी विषम चरणान्त में प्रयोग किया है.
देश-प्रेम इब घट रह्या, बलै बात बिन तेल।
देस द्रोहियां नै रच्या, इसा कसूता खेल।। -- डॉ. लक्ष्मण सिंह
*
लय-भंग हो रही हो तो निम्नवत कर लें:
कर जोड़े नित कर रहे, हम सविनय सत्कार.
सदा सदा से दे 'सलिल', सुन लो तनिक पुकार.
आदरणीय संजीव जी,
आपके दोहों में वो सुन्दर प्रवाह, कथ्य की सत्यता, और गूढ़ता साथ ही साथ शब्दों और अलंकारों की वो जादूगरी होती है की मन मुग्ध हो बस वाह कर उठता है...
इस सुन्दर दोहावली के लिए हृदयतल से बधाई स्वीकार करें..
आदरणीय संजीव जी कुछ संशय हैं, कृपया निवारण करें
१.
नेह निनादित नर्मदा, नवल निरंतर धार.
भवसागर से मुक्ति हित, प्रवहित धरा-सिंगार..
आदरणीय क्या यहाँ सिंगार की मात्रा ४ ली गयी है और अनुस्वार का उच्चारण नहीं करना है..?
२.
कर जोड़े कर रहे है, हम सविनय सत्कार.
भोग ग्रहण कर, भोग से कर दो माँ उद्धार..
हमनें दोहा शिल्प में मंच पर ही उपलब्ध जानकारी से सीखा है, कि दोहा छंद में विषम चरण का अंत लघु-गुरु (१२) या लघु-लघु-लघु (१११) से करते हैं....क्या दोहा-मुक्तिका में हम दोहा शिल्प से इतर, विषम चरण का अंत मुक्त तरीके से (यथा-२२ से )भी कर सकते हैं?
३. यही संशय अंतिम दोहे में भी है जहां विषम चरण का अंत २२ से हुआ है..
'सलिल' सदा दे सदा से, सुन लो तनिक पुकार.
ज्यों की त्यों चादर रहे, कर दो भाव से पार..
सादर.
आदरणीय संजीव सलिल जी " मुक्तिका " के लिए मुक्त कंठ से बधाई।
श्याम जी धन्यवाद.
bahot khoob ......................
लक्ष्मण जी, राम शिरोमणि जी
आपका आभार शत-शत
कर जोड़े कर रहे है, हम सविनय सत्कार.
भोग ग्रहण कर, भोग से कर दो माँ उद्धार..
आदरणीय दोहा बहुत सुन्दर मुक्तिका है।प्रणाम सहित हार्दिक बधाई।
हार्दिक आभार आदरणीय
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online