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लघुकथा: बड़ा / संजीव 'सलिल'

लघुकथा: बड़ा
*
बरसों की नौकरी के बाद पदोन्नति मिली.

अधिकारी की कुर्सी पर बैठक मैं खुद को सहकर्मियों से ऊँचा मानकर डांट-डपटकर ठीक से काम करने की नसीहत दे घर आया. देखा नन्ही बिटिया कुर्सी पर खड़ी होकर ताली बजाकर कह रही है 'देखो, मैं सबसे अधिक बड़ी हो गयी.'

जमीन पर बैठे सभी बड़े उसे देख हँस रहे हैं. मुझे कार्यालय में सहकर्मियों के चेहरों की मुस्कराहट याद आई और तना हुआ सिर झुक गया.

*****

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Comment by coontee mukerji on March 29, 2013 at 8:39pm

सलील जी बहुत सुंदर  एव शिक्षाप्रद भी

Comment by Ashok Kumar Raktale on February 23, 2013 at 8:24am

सुन्दर शिक्षाप्रद लघुकथा. बधाई

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 21, 2013 at 10:16am

घमण्ड आ जाय तो सिर नीचा भी होता है, और ऐसा अहसास हो जाय तो "देर आये दुरस्त आये"

यह लघु कहना गागर में सागर की तरह सुन्दर लगी, हार्दिक बधाई आदरणीय संजीव सलिल जी 
Comment by मोहन बेगोवाल on February 20, 2013 at 11:29pm

बहुत अच्छी लघुकथा , इसी लिए कहते हैं , ये पद तो कच्चे रंग होते हैं इनका घमंड क्यों 

Comment by बृजेश नीरज on February 20, 2013 at 9:59pm

बहुत सुन्दर!

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