ग़ज़ल
बहुत विषैला है विष यारो, दुनिया की सच्चाई का |
आखिर, कैसे दर्द सहें हम, दिल में फटी बिवाई का ||
बनकर इन्सां जीते - जीते खुद को हमने लुटा दिया,
फिर भी तमगा मिला न हमको एक अदद अच्छाई का ||
वे रिश्ते जो कल तक हमको, अपना सब कुछ कहते थे,
आज वही हमको कहते हैं - एक अपरूप बुराई का ||
गैरों की नफरत से कैसा शिकवा और शिकायत क्या ?
मिल न सका विश्वास हमें तो, हमको अपने भाई का ||
नैतिकता के सारे बंधन और कर्त्तव्य हमारे थे,
अधिकारों की दावेदारी पर अधिकार ढिठाई का ||
गाली दें, अपमान करें वो , उनको ये अधिकार मिला,
और हमें कर्त्तव्य - उन्हें हम समझें रूप मिठाई का ||
कल तक जो भी सीखा हमनें , धर्म - न्याय की भाषा से,
चलन आज उल्टा है उससे, नवयुग की तरुणाई का ||
अपनों की ठोकर से ही दिल, इतना लहूलुहान आज है,
डर उसको सहमा जाता है - अपनी भी परछाईं का ||
रचनाकार - अभय दीपराज
Comment
दीपराज जी, आपको पढ़ना वाकई सुकून दे रहा है........
गैरों की नफरत से कैसा शिकवा और शिकायत क्या ?
मिल न सका विश्वास हमें तो हमको अपने भाई का ||
एक बेहतरीन शेर, जरा सा अटकाव लग रहा है "मिल न सका विश्वास हमें तो हमको अपने भाई का ||
अपनों की ठोकर से ही दिल, इतना लहूलुहान आज है,
डर उसको सहमा जाता है - अपनी भी परछाईं का ||
सुंदर ख्यालात |
मतले के दुसरे शे'र मे "बिवाई" शब्द कुछ जमा नहीं, बिवाई तो पैर मे होता है दिल मे नहीं |
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