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क्या शहर ,क्या गाँव

मेरे लिए
क्या शहर ,क्या गाँव
जीवन तपती दुपहरी
नहीं ममता की छाँव
 
गाँव में,भाई को
मेरी देख रख में डाल
माँ जाती ,भोर से
खेती की करने
सार सम्भाल
 
शहर में,बड़ा भाई
जाता है कारखाने
गृहस्थी का बोझ बंटाने
खुद को काम में खपाने
 
कच्ची उम्र की मजबूरी
काम पूरा,मजदूरी मिलती अधूरी
हाथ में कलम पकड़ने की उम्र में
बनाता है ,कारखाने में बीड़ी
बाल श्रम का यह रोग
पहुँचता जाएगा
पीढ़ी दर पीढ़ी
 
छोटे भाई की देख रख का
नहीं हैं मलाल
पर मेरे लिए,जाने कब
आयेगा वह साल
जब मैं भी
जा सकूंगी स्कूल
 
ज़िंदगी की चक्की  से
गर दो घंटे भी
फुर्सत पाऊँ
खुद पढूँ ,साथ मैं
छोटे भैया को भी पढाऊँ

 
कुछ कर गुजरने की चाह
मन में संवारती
छोटे भाई को दुलारती
गीली लकड़ियाँ सुलगाती
रांधती हूँ दाल भात
माँ वापिस आती,थकी हारी
लिए शिथिल गात
 
दिन भर  की थकान से पस्त
सो जाती,बिन किये कोई बात
ममता के दो बोल को तरसता
जीवन मेरा,मेरे जीवन का नाम अभाव
मेरे लिए क्या शहर ,क्या गाँव
जीवन तपती दुपहरी,नहीं ममता की छाँव
 

  • रजनी छाबड़ा

Views: 593

Comment

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Comment by rajni chhabra on May 1, 2012 at 5:28pm

ganesh jee,kavita ke marm ko sarahne ke liye,bahut bahut dhanyvaad


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on May 1, 2012 at 4:07pm

दिन भर  की थकान से पस्त
सो जाती,बिन किये कोई बात
ममता के दो बोल को तरसता
जीवन मेरा,मेरे जीवन का नाम अभाव

वाह आदरणीया रजनी जी, बहुत ही भावनात्मक अभिव्यक्ति है, सच ही तो है, मजदूरों के लिए सुबह होती है शाम होती है , यू ही उम्र तमाम होती है , इस खुबसूरत अभिव्यक्ति पर बधाई आदरणीया |


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 1, 2012 at 3:55pm

संवेदनशील दृष्टि के शब्द जीवन की दुखती सचाई का बयान करते हैं.

बहुत अच्छे, रजनी जी.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on May 1, 2012 at 1:30pm

 वाह रजनी जी सम सामयिक  रचना मजदूर   का जीवन और गरीबी की परिभाषा को ही जीवंत किया है आपने ...वाह बधाई आपको 

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