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हालात आदमी के - डॉo विजय शंकर

कितना होशियार है आदमी ,
हर समय सचेत रहता है ,
बुद्धि को प्रखर करता रहता है,
हर एक के दिमाग को पढ़ता रहता है ,
बस, जब लुटता है तो दिमाग से नहीं,
दिल से लुटता है,पूरे दिल से लुटता है ......

दिमाग उस समय भी
उसका चौकन्ना रहता है,
खूब याद रखता है, कि कब कहाँ ,
कैसे-कैसे , कितना-कितना लुटे ,
स्मृति में सब रहता है ,
बार बार , दोहराता रहता है,
सुनाता है अपने लुटने की कहानी,
दूसरों की भी सुनता है कहानी………

और फिर तैयार होता है ,
पूरे जोश से,खरोश से,होश से ,
अपनी पूरी सामर्थ्य
और विवेक के साथ ,
फिर लुटने के लिए , अगली बार।
दिमाग फिर भी साथ रहता है,
चौकन्ना भी रहता है,
बस फैसला वो दिल से करता है,
ऐन वक़्त पे दिमाग को छुट्टी दे देता है,
इसी लिए तो बार बार लुटता है.
एक बार दिमाग का काम दिमाग से कर ले ,
काहे को बार बार लुटता है ,
काहे को बार बार लुटता है ॥
नोट - इन पंक्तियों का ताल्लुक इश्क - विश्क से यक़ीनन नहीं है।

मौलिक एवं अप्रकाशित.
डा० विजय शंकर

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Comment by Dr. Vijai Shanker on March 3, 2015 at 1:21am
आदरणीय प्रतिभा जी, आप विचारों से धनी हैं , आपने सही कहा जीवन में मन और मस्तिष्क में अंतर्द्वंद रहता है , और कई कारकों और कई कारणों से रहता है , मैंने यहां सिर्फ वह कारक लिया है जो हमारे सांसारिक व्यवस्था सम्बन्धी जीवन को प्रभा आईटी करता है, बहुत स्पष्ट करूँ तो हम रोज जीवन में कहीं न कहीं ठगे जाते हैं पर वहां हम भावुक रह कर चुप रह जाते हैं , अभी हम में से बहुत लोग अपने मत का प्रयोग भावनाओं के आधार पर ही करते हैं , और परिणाम सामने है.
आपकी उत्साहपूर्ण टिप्पणी के लिए आपका आभार , सद्भावनाओं के लिए धन्यवाद, सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on March 2, 2015 at 8:08pm
प्रिय जीतेन्द्र जी, रचना की स्वीकृति के लिए आपका आभार , बधाई के लिए धन्यवाद, सादर।
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 2, 2015 at 7:21pm

एक इंसान का हालातों से सामना और फिर मन और मस्तिष्क से लिए गए फैसलों में नफा-नुक्सान को बहुत ही बेहतर ढंग से प्रस्तुत किया आपने , आदरणीय डा. विजय जी. रचना पर बहुत-बहुत बधाई

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 2, 2015 at 5:41pm
आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी, आभार, बधाई हेतु ह्रदय से बहुत बहुत धन्यवाद, सादर।
Comment by Hari Prakash Dubey on March 2, 2015 at 12:50pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, सुन्दर रचना है , हार्दिक बधाई आपको सर ! सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 2, 2015 at 11:51am
आदरणीय इंजीo गणेश जी बागी जी, आपके द्वारा इंगित संशोधन कर दिया है, आपका बहुत बहुत आभार, धन्यवाद, सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on March 2, 2015 at 11:00am
आदरणीय खुर्शीद खैरादी जी, रचना को स्वीकार करने के लिए बहुत बहुत आभार , आपकी बधाई एवं सद्भावनाओं के किये ह्रदय से धन्यवाद। सादर।
Comment by khursheed khairadi on March 2, 2015 at 9:10am

बस, जब लुटता है तो दिमांग से नहीं,
दिल से लुटता है,पूरे दिल से लुटता है ......

दिमांग उस समय भी
उसका चौकन्ना रहता है,
खूब याद रखता है, कि कब कहाँ ,
कैसे-कैसे , कितना-कितना लुटे ,

आदरणीय विजयशंकर सर ,सुन्दर रचना हुई है ,हार्दिक बधाई |सादर अभिनन्दन |

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 2, 2015 at 6:13am
आदरणीय इंजी o गणेश जी बागी जी , रचना को स्वीकार करने के लिए आपका आभार एवं बधाई के लिए ह्रदय से बहुत बहुत धन्यवाद , सादर।
अंग की बिंदी हेतु आपका बहुत बहुत धन्यवाद , हटा दूंगा। सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on March 2, 2015 at 6:10am
आदरणीय शिज्जु शकूर जी , आपका आभार एवं बहुत बहुत धन्यवाद , सादर।

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