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अचानक याद आया --- डॉo विजय शंकर

कहते हैं गुलाब के साथ
कांटे जरूर होते हैं ,
पर कुदरत ने जीता जागता एक गुलाब ,
ऐसा भी बनाया है कि बनाने वाले की माया
कोई समझ नहीं पाया है,
उसको काँटों से बिलकुल मुक्त बनाया है,
इसे कुदरत की मेहरबानी कहें या नाइंसाफी ,
जो जिंदगी देती हैं उसकी ही जिंदगी को
इस कदर कमजोर बनाया है,
हद हो गयी आदमी ने इसी का
हर तरह से बस फायदा ही उठाया है ,
मर्द होने की अपनी जिम्मेदारियों को
बस यह कह कर निभा दिया है ,
कि हमने मेमने को बता दिया ,
घर में रहो , बाहर निकलो ही क्यों ,
कपड़े कैसे पहनो,पढ़ो क्यों, बोलो क्यों ,
छुप जाओ , छुप जाओ, छुप जाओ ,
कभी कहीं , घर में या बाहर,
भेड़िये मिलें और झपट ही पड़े तो
भेड़ियों को हरा देने को बता दिया है ,
हमने मेमने को ये बता दिया ,
हमने उसे वो बता दिया ,
हमने उसे भेड़िये से खुद को
बचा लेने को बता दिया ,
हमने उसे जान बचा लेने का हक़ दिया है,
हमने उसे ये भी बता दिया है।

मौलिक एवं अप्रकाशित
एवं सामयिक।

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Comment by Dr. Vijai Shanker on March 10, 2015 at 8:11pm
आपको पसंद आई , आभार , आदरणीय महर्षि त्रिपाठी जी , सद्भावनाओं के लिए धन्यवाद , सादर
Comment by maharshi tripathi on March 10, 2015 at 7:31pm

बहुत बहुत बधाई आ.विजयशंकर जी ,,,काफी गहराई है आपकी कविता में |

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 8, 2015 at 1:06pm
प्रिय जीतेन्द्र जी ,रचना आप को पसंद आई, उसे सार्थकता मिली, आभार, आपकी बधाई के लिए ह्रदय से धन्यवाद , सादर।
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 8, 2015 at 11:04am

बहुत गहन व् सारगर्भित प्रस्तुति, आदरणीय डा.विजय जी. बधाई स्वीकारें

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 7, 2015 at 7:00pm
आदरणीय सोमेश जी , आपकी पकड़ बिलकुल सही है , विषय वहीँ से लिया गया है , प्रस्तुति को सार्वजनीय बनाया गया है , आपकी सद्भावनाओं के लिए आभार एवं धन्यवाद, सादर।
निवेदन है कि क्या नागार्जुन जी की पंक्तियों को आप मेरे इनबॉक्स में भेज सकेंगें , सादर।
Comment by somesh kumar on March 6, 2015 at 11:24pm

जहाँ तक मुझे लगता है निर्भया कांड पे आने वाली डोक्युमेंटरी और उसमें जाहिर की गई भावना को आप ने गुलाब के माध्यम से शब्द दिए हैं |समसामयिक विषय पर इस प्रकार लिखना आपकी रचना की जीवन्तता का परिणाम है |अभी नागर्जुन दादा को पढ़ रहा था कुछ-कुछ वैसी ही सीधी सरल भाषा है इस कविता की --बधाई 

Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on March 5, 2015 at 10:16pm

मुबारक हो, मुबारक हो ॥

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 5, 2015 at 10:12pm
बहुत बहुत आभार आपका , आदरणीय विजय प्रकाश शर्मा जी, रचना को स्वीकृति प्रदान करने के लिए , आपसे काफी समय बाद संपर्क हुआ , आपकी सद्भावनाओं के लिए भी ह्रदय से धन्यवाद,
होली पर मैंने इसी मौच पर यूँ भी कलम चलाई है , आपको सादर ,
आई होली , होली आई ,
होली शुभ हो ,
भरपूर रंग हो , गुलाल हो,
दिलकश छींटे हों , बौछार हो,
उमंग हो, सुरूर हो , खुमार हो,
बहार हो, दुलार हो , प्यार हो ,
प्यार ही प्यार हो , रंगीन प्यार हो,
शोख़ियाँ हों , शेखियाँ हों ,
ऊँची-ऊँची उमंगें हों ,
रंग हो , तरंग हो,
चाहें जिसे , उसी का संग हो,
मुबारक हो, मुबारक हो ॥
होली सभी को मुबारक हो ,
Comment by Dr.Vijay Prakash Sharma on March 5, 2015 at 10:02pm

आ. डॉ विजय शंकरजी!
अत्यंत समसामयिक एवम सारगर्भित प्रस्तुति पर अनगिनत बधाई ,आपने होली में यह तूफानी कलम चलाई।

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 5, 2015 at 9:54pm
आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी, आभार , रचना आपको पसंद आई, आपकी सद्भावनाओं के लिए बहुत बहुत धन्यवाद , सादर।

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