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शिक्षा और अंगूठा -- डॉo विजय शंकर

द्रोणाचार्य
एक युग प्रवर्तक शिक्षक ,
राजकीय सरंक्षण के शिक्षक ,
सरकारी व्यवस्था के आधीन ,
शिक्षक और वह भी पराधीन ,
एकलव्य से अंगूठा मांगने को विवश ,
शिक्षा को सीमित करने को लाचार।
राज्य के राजकीय गुरु थे द्रोण ,
सरकारी अध्यापक से थे द्रोण ,
राजपुत्रों को पढ़ाते थे द्रोण
राजहित में पढ़ाते थे द्रोण ,
जनहित नहीं जानते थे द्रोण ,
राजहित में ही एकलव्य से अंगूठा
मांग बैठे थे बिचारे द्रोण ………

एक परम्परा छोड़ गए द्रोण ,
अंगूठे का महत्त्व बता गए द्रोण ,
शिक्षा को अगूंठे से जोड़ गए द्रोण ,
चल जाए गुरु की तो आज भी
शिष्य से क्या न मांग ले गुरु ,
छात्र तो वैसे ही बात बात पे अंगूठा दिखाते हैं,
सरकारी शिक्षा में छात्रअंगूठा छाप से रह जाते हैं,
तमाम तथाकथित पढ़े लिखे भी
पूरे अंगूठा छाप ही नज़र आते हैं ,
व्यवस्था में उच्चासीन मिल जाते हैं ,
करते कुछ नहीं , अंगूठा दिखाते हैं ,
उसे ही जीत का प्रतीक भी बतातें हैं……

द्रोण यदि राजकीय नियंत्रण से बाहर होते
तो महाभारत के परिणाम ही कुछ और होते
शिक्षा को राजकीय नियंत्रण से मुक्त होना चाहिए
शिक्षा पर राज का नहीं ,
राज पर शिक्षा का असर होना चाहिए
नक़ल की शिक्षा की तिलांजलि हो,
व्यवस्था कारों की भी पहले शिक्षा हो,
वरना अंगूठे चलाते रहो ,
अंगूठे दिखाते रहो ,
अंगूठा चलते देखते रहो,
या फिर बच्चे ही बने रहो ,
अंगूठा चूसते रहो ॥

मौलिक एवं अप्रकाशित
डॉo विजय शंकर

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Comment by मिथिलेश वामनकर on April 5, 2015 at 12:58am

क्या खूब कहा आदरणीय विजय शंकर सर, बधाई इस प्रस्तुति पर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 4, 2015 at 6:00pm

आ० विजय सर !

कमाल की बात कही आपने -- वाह

 

शिक्षा को राजकीय नियंत्रण से मुक्त होना चाहिए
शिक्षा पर राज का नहीं ,
राज पर शिक्षा का असर होना चाहिए
नक़ल की शिक्षा की तिलांजलि हो,
व्यवस्था कारों की भी पहले शिक्षा हो

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