अपनी प्रिया को छोड़ के प्रीतम अगर गया |
नन्हा सा कैमरा कहीं चुपके से धर गया ||
आया हमारे मुल्क में व्यापार के लिए
सोने की चिड़िया लेके जाने किधर गया ||
रुपये की खनक गूंजती बाज़ार में अभी
डालर के सामने मगर चेहरा उतर गया ||
बनकर मसीहा गाँव में घूमे जो माफिया ,
दस्खत कराना आज उसका सबको अखर गया ।।
कोयले से आजकल हम दांतों को रगड़ते-
तपकर दुखों की आंच में कुछ तो निखर गया ।।
Comment
जी , आदरणीय सौरभ जी -
समय पर तैयार नहीं कर पाया था -
दरअसल गजल अब भी बहुत कम समझ पा रहा हूँ -
तरही मुशायरा का शुक्र-गुजार हूँ-
अभ्यास का मौका मिला -
सादर ।
बहुत बहुत आभार ।।
आदरणीय प्रदीप जी आभार ।।
रचना अच्छी है, रविकर जी.
आखिरी द्विपदी की आखिरी पंक्ति ही पिछले मुशायरे का तरह-मिसरा भी था.
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