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मेरे वतन में आते हैं सारे जहाँ से लोग.
रहते हैं इस ज़मीन पे अम्न-ओ-अमाँ से लोग.
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लगता है कुछ खुलुसो महब्बत मे है कमी.
क्यूं उठ के जा रहे हैं बता दरमियाँ से लोग.
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तेरा ख़ुलूस तेरी महब्बत को देखकर.
जुड्ते गये हैं आके तेरे कारवाँ से लोग.
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कैसा ये कह्र कैसी तबाही है ऐ खुदा.
बिछ्डे हुए हैं अपनो से अपने मकाँ से लोग.
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हिन्दी अगर है जिस्म तो उर्दू है उसकी जान .
करते हैं प्यार आज भी दोनों ज़बाँ से लोग.
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नज़्र-ए-फ़साद होता रहा घर मेरा '' रज़ा ''
निकले नहीं मुहल्ले में अपने मकां से लोग.
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आली जनाब समर साहिब ,आपकी नज़रों से ग़ज़ल गुज़रने के बाद और भी हसीन हो गई है ,
महब्बत के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।
जनाब सुशील शर्मा साहिब ,
महब्बत के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।
मेरे वतन में आते हैं सारे जहाँ से लोग.
रहते हैं इस ज़मीन पे अम्न-ओ-अमाँ से लोग.
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लगता है कुछ खुलुसो महब्बत मे है कमी.
क्यूं उठ के जा रहे हैं बता दरमियाँ से लोग.
वाह आदरणीय जी बहुत ही दिलकश अशआर कहे हैं आपने। इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सर।
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