सामयिक लघुकथा:
ढपोरशंख '
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कल राहुल के पिता उसके जन्म के बाद घर छोड़कर सन्यासी हो गए थे, बहुत तप किया और बुद्ध बने. राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर इतिहास में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता.
आज राहुल के किशोर होते ही उसके पिता आतंकवादियों द्वारा मारे गए. राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर देश के निर्माण में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता.
सबक : ढपोरशंख किसी भी युग में हो ढपोरशंख ही रहता है.
Comment
परम आदरणीय सलिल जी सादर, व्यंग करती सुन्दर लघुकथा.
इशारों-इशारों में आपने बहुत ही भेदती बातें कहीं हैं, आचार्य सलिलजी.
प्रथमदृष्ट्या तो यह कथा तुलनात्मकता भर दीखती है. परन्तु, इसका संकेत वस्तुतः उन दो नेपथ्यों की ओर है जिनका होना घटनाक्रम के थोथे विकास का कारण हैं. जिनके गर्भ में भविष्य का छूँछापन ही पला दिखा है. दोनों संदर्भों का छूँछापन कितना आग्रही है कि तथाकथित दोनों संदर्भों के तथाकथित ’तपस’ की एक झटके में पलीद कर देता है. एक ’तपस’ का परिणाम अवधारणाओं के लिहाज से इस धरा पर आगत में जुगुप्साकारी प्रपंचों का कारण बना तो दूसरे ’तपस’ का कारण इस धरा की प्रत्येक दुरूह समस्या का मूल है.
विस्मिय है, दोनों बिम्ब इतने सिमेट्रिकल कैसे हो गये हैं ! आदरणीय, धन्य हैं !!
संभवतः आपकी कोई पहली लघुकथा देख रहा हूँ. कहना न होगा, इस कथा की शैली भी काव्यात्मक है.
सादर बधाई
हा हा हा हा हा बहुत बढ़िया कहानी | लाजवाब
ढपोरशंखों के देश में ढपोरशंख की ही पूछ है और पूंछ है। पूंछ जो दिखती नहीं पर बिक रही है।
सटीक व्यंग सर जी
प्रणाम सहित बधाई आपको !!!!!!!!!!!!!!!!!
वाह आदरणीय वाह क्या तुलनात्मक अध्ययन है
सटीक व्यंग सर जी
प्रणाम सहित बधाई आपको
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