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ग़ज़ल - सज़ा तय हुई है ख़ता के बग़ैर (ज़ैफ़)

122 122 122 12

सज़ा तय हुई है ख़ता के बग़ैर
गला जाएगा अब रज़ा के बग़ैर

मेरे सब्र की इंतिहा देखिए
शिफ़ा चाहता हूँ दवा के बग़ैर

तेरे दाम-ए-तज़्वीर की ख़ैर हो
रिहा हो गया हूँ क़ज़ा के बग़ैर

तेरी बेवफ़ाई प कबतक जियूँ
कभी इश्क़ कर ले दग़ा के बग़ैर

अजब रस्म-ए-दुनिया है क़ाबिज़ यहाँ
न कुछ भी मिले इल्तिजा के बग़ैर

अना से छुटा तो ख़याल आया है
मैं कुछ भी नहीं हूँ ख़ुदा के बग़ैर

अलग है समाँ ख़ुद-सरी का मेरी
सुधरता नहीं हूँ सज़ा के बग़ैर

तेरे बिन नहीं आ रही साँस तक
दिया बुझ रहा है हवा के बग़ैर

ख़सारा बहुत है मुहब्बत में 'ज़ैफ़'
न करियो ये सौदा नफ़ा के बग़ैर

(मौलिक/अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on December 28, 2022 at 6:54pm

बढ़िया ग़ज़ल कही भाई जैफ...बधाई

Comment by Zaif on December 26, 2022 at 11:23am

उस्ताद-ए-मुहतरम समर जी, बेहद नवाज़िश। सर जी, सुधार का प्रयास करता हूँ। सादर।

Comment by Samar kabeer on December 25, 2022 at 6:47pm

जनाब ज़ैफ़ जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।

'अलग है समाँ ख़ुद-सरी का मेरी
सुधरता नहीं हूँ सज़ा के बग़ैर'

ऊला के हिसाब से सानी में 'सुधरता नहीं' की जगह "नहीं सुधरूँगा" वाली बात होनी चाहिए, ग़ौर करें ।

'न करियो ये सौदा नफ़ा के बग़ैर

इस मिसरे का क़ाफ़िया ठीक नहीं क्योंकि सहीह शब्द "नफ़'अ'' 21 है ।

Comment by Zaif on December 25, 2022 at 5:50pm

मुहतरमा सुधा जी, बेहद शुक्रिया आपका।

Comment by Sudha tripathi on December 25, 2022 at 7:33am

यमित जी बहुत शानदार  बधाइयां स्वीकार करें

कृपया ध्यान दे...

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