11212 11212
इसी में तो मेरा जहान है
ये जो खंडरों सा मकान है
यूँ ही बोलने से बचा करें
यूँ कि तुंद-ख़ू ये ज़बान है
नया खून है वो है जोश में
अभी ज़िंदगी में उफान है
न है आसमाँ न है तू ज़मीं
तुझे ख़ुद पे कितना गुमान है
तेरी जाति क्या है बिसात क्या
तेरा ज़िस्म ख़ाक समान है
न क़ुसूर कोई 'तमाम' अब
न बची उमंग न जान है
मौलिक व अप्रकाशित
(आज़ी तमाम)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया आ धामी सर ग़ज़ल पर आपकी बधाई के लिए 🙏
आ. भाई आजी तमाम जी, अभिवादन। अच्छी गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
आ श्याम जी सहृदय शुक्रिया ग़ज़ल पर बधाई के लिए 🙏
आ निलेश जी ग़ज़ल पर आपकी नज़र ए करम हुई बेहद शुक्रिया 🙏
आ. आज़ी भाई
अच्छी ग़ज़ल हुई है. बधाई स्वीकार करें
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online