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दोहे आज के .....

बिगड़े हुए समाज का, बोलो दोषी कौन ।
संस्कारों के ह्रास पर, आखिर हम क्यों मौन ।।

संस्कारों को आजकल, भला पूछता कौन ।
नंगेपन  के प्रश्न पर,  आखिर हम क्यों मौन ।।

नर -नारी के मध्य अब, नहीं शरम की रेख ।
खुलेआम अभिसार का, देख तमाशा देख ।।

सरेआम अब हो रहा, काम दृष्टि का खेल ।
युवा वर्ग में आम अब, हुआ अधर का मेल ।।

सभी तमाशा देखते, कौन करे प्रतिरोध ।
कल के बिगड़े रंग का, नहीं किसी को बोध ।।

कर में कर को थाम कर, चले कामिनी संग ।
लाज शरम को छोड़कर, भरते कामुक रंग ।।

सुशील सरना/ 27-6-24

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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