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हमको बहुत लूटा गया,
फिर घर मेरा फूंका गया.

 

झगड़ा रहीम-औ-राम का,
पर, जान से चूजा गया.

 

दर पर, मुकम्मल उनके था,
बाहर गया, टूटा गया.

 

भारी कटौती खर्चो में,
मठ को बजट पूरा गया ,

 

मजलूम बन जाता खबर,
गर ऐड में ठूँसा गया. (ऐड = प्रचार/विज्ञापन/Advertisement)

 

उत्तम प्रगति के आंकड़े,
बस गाँव में, सूखा गया.

 

वादा सियासत का वही,
पर क्या अलग बूझा गया!!

 

है चोर, पर साबित नहीं,
दरसल, वही पूजा गया.

 

माझी, सयाना वो मगर,
मन से नहीं जूझा, गया.

 

 

----------- अगर ये गजल व्याकरण की दृष्टि से सही है, तो श्री सौरभ जी को समर्पित.

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Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on April 4, 2012 at 10:51am

आदरणीय मयंक भाई, सादर नमस्कार, उत्साह वर्धन के लिए आभार.

Comment by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on April 4, 2012 at 8:36am

आदरणीय राकेश भाई...आपकी दोनों ही रचनाएं हमको यहाँ लूटा गया और हमको बहुत लूटा गया मैंने अभी पढ़ीं हैं|एक से बढ़कर एक उम्दा शेर|सादर वंदे

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 28, 2012 at 5:38pm

आदरणीय शाही जी, सादर नमस्कार, आपका कमेन्ट मिला और रचना में एक और आयाम जुड़ गया. यही एक शुभचिंतक आलोचक की पहचान है. बहुत बहुत धन्यवाद.

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 26, 2012 at 8:52pm

आदरणीया सीमा जी, सादर नमस्कार. आप लोगो के सानिध्य में आ के पत्थर भी कवितायेँ लिखने लगे, म तो इंसान हूँ, इस मंच पर सब कुछ है, प्रेम, गुरु, उत्साह. तो बस यहीं डेरा जमा के बैठेंगे जब तक ढंग का कुछ सीख न लें. आप के द्वारा की गई तारीफ एक नव रचनाकार के लिए पुरस्कार के सामान है. धन्यवाद.

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 26, 2012 at 2:54pm

बस एक ही शब्द है मेरे पास राकेश भाई! लाजवाब!! आपकी कड़ी मेहनत रंग ले ही आई! बधाईयां..!!

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 26, 2012 at 9:28am

श्रद्धेय श्री प्रदीप जी, सादर प्रणाम. आपकी समस्त बातों का मै दिल से पालन करनेकी कोशिश करूँगा. मार्गदर्शन बनाये रखे. धन्यवाद.

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 25, 2012 at 7:42pm

स्नेही राकेश जी, सादर 

मेरे जीवन का मिशन है की 
१. किसी एक के चेहरे पर हंसी ला सकूं , सफल रहा हूँ अपने प्रयास में. 
२- राष्ट्र को सच्चा प्रहरी दे सकूँ , प्रयासरत हूँ.
आप भटकते हैं राह से उम्र का तकाजा है. 
बड़ों की बात मान कर संभल जाते हैं वादा है
हारोगे नहीं जीवन में यदि अनुशासन का इरादा है. 
रोम नहीं बना था एक दिन में लिंकन न बने महान  
सतत प्रयास लाता है रंग एक दिन
रस्सी और कुँए का प्यार देख ले 
गुरु शिष्य परम्परा सदैव  निभाना तुम
नाम अपने "प्रदीप" का हरगिज न डूबना तुम
जो गुरु है वास्तविक अपने को पहचानता
सर्वस्व देता शिष्य को जिसे योग्य है जानता 
है शिष्य वो जो सब कुछ गुरु को सौंप दे
सच्चा गुरु वो जो उससे कुछ न ले, (नाना नाती उवाच -कुशवाहा )
yashasvi bhav.
 
Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 25, 2012 at 12:14pm

श्रीमान नीरज जी, सादर नमस्कार एवं धन्यवाद.

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 25, 2012 at 12:12pm

श्रद्धेय श्री योगराज जी, सादर नमस्कार. आपकी तारीफें एवं सलाहें दोनों ही अनमोल हैं मेरे लिए. आप दोनों लोगों ने जिस तरह से काव्य एवं व्याकरण की सक्षम बारीकियों से मुझे अवगत कराया है, उस की 'practice' करता रहूँगा, इन सब बातों को आत्मसात करने के लिए हर किसी को वक्त लगेगा, किन्तु आगे से अन्य रचनाओं के लिए एक उदाहरण सदैव सामने रहेगा. आप लोग मुझ पर जो इतनी मेहनत और कृपा दिखा रहे हैं, वह कतई बेजा नहीं jaane dunga, itana irada aur vaada rakhta hun, punah saadar pranaam.

Comment by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 25, 2012 at 12:00pm

गरिमामयी श्रीमती राजेश कुमारी जी, सादर नमस्कार. आपका 'वाह' रूपी आशीर्वाद एवं गुरुजनों की मेहनत जरूर रंग लाएगी, इतना मुझे विश्वास है. धन्यवाद.  

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