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तुम पिंजरे में बंद मुर्दा ज़िन्दगी के सिवा कुछ भी तो नहीं ,

अपने आप को ,आज़ाद पंछी मान बैठे हो ,

तुम्हारी तनी  हुई मुट्ठियाँ ,बढ़ते कदम ,

बीवी बच्चों को देख, अपाहिज हो जाते हैं ,

तुम्हारे मस्तक की मांसपेशियां ,

पेट की तरफ देख ,अनाथ हो जाती है ,

तुम्हारी जुबान ,साहब को देख ,

तालू से चिपक जाती है ,

तुम्हारी शिराओं में रक्त नहीं बहता ,

दिल में टीस नहीं उठती ,मष्तिष्क में विचार नहीं आते ,

तुम अपने मस्तिष्क से नहीं चन्द टुकड़ों द्वारा संचालित हो ,

और फिर भी आज़ाद हो ,

हाँ मेरे दोस्त तुम आज़ाद हो ,

आज़ाद हो ,संवेदनाओं से ,चिंतन से ,

मस्तिक्ष से ,हृदय से ,और ...और ....

और ...आज़ादी से


अप्रकाशित मौलिक

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 11, 2013 at 4:15pm

वायव्य नारों के सापेक्ष ज़मीनी सच्चाई का क्या अर्थ है आपकी रचना अत्यंत गंभीरता से उभारती है, आदरणीय. 

सादर बधाई स्वीकारें.. . 

शुभ-शुभ

Comment by वेदिका on August 6, 2013 at 8:45am

तुम्हारी तनी  हुई मुट्ठियाँ ,बढ़ते कदम ,

बीवी बच्चों को देख, अपाहिज हो जाते हैं , .... आम आदमी की कमजोरी ही उसकी पीड़ा बन जाती है 

शुभकामनाये !!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 5, 2013 at 9:54pm

आम आदमी की बेबसी जन्य मस्तिष्क कुन्दता या मानसिक कुंदता जन्य बेबसी पर आक्रोश बखूबी अभिव्यक्त हुआ है..

शुभकामनाएँ 

Comment by Shyam Narain Verma on August 5, 2013 at 11:45am

बहुत सुन्दर! आपको हार्दिक बधाई.....................

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