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ग़ज़ल - अँधेरा चीर दे नश्तर कहाँ है - पूनम शुक्ला

1222. 1222. 122

कहाँ है आज मेरा घर कहाँ है
नहीं मिलती कहीं चादर कहाँ है

नमी है आँख में नींदें उड़ी हैं
नहीं मालूम अब बिस्तर कहाँ है

शगूफे इस तरह मुरझा रहे हैं
खला को नाप दे मिस्तर कहाँ है

छुपाएँ किस तरह अपने बदन को
कहीं मिलता नहीं अस्तर कहाँ है

नहीं ये घर नहीं मेरा तभी वो
अँधेरा चीर दे नश्तर कहाँ है

नदी सी दौड़ती मैं तो चली थी
मुझे रोके जो वो पत्थर कहाँ है

समा जाऊँ कहीं बोलो कहाँ अब
मगर वो खौलता सागर कहाँ है

सदा आई नहीं तेरी अभी तक
सबा लाए अभी मज़हर कहाँ है


शगूफे - कलियाँ
मिस्तर - नापनी,स्केल
सबा - सुबह
मज़हर - नूर

पूनम शुक्ला
मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 491

Comment

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Comment by Sushil.Joshi on October 24, 2013 at 4:48am

इस शानदार गज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें आ0 पूनम जी...

Comment by वीनस केसरी on October 21, 2013 at 1:08am

आपकी रचनाशीलता और आपका समर्पण रंग ला रहा है

ढेरो बधाई

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 19, 2013 at 2:01pm

सुन्दर ग़ज़ल हुई है बधाई स्वीकारें

Comment by बृजेश नीरज on October 18, 2013 at 11:20pm

सुन्दर ग़ज़ल! आपको हार्दिक बधाई!

यदि दूसरों की रचनाओं को भी पढ़ें और उन पर अपने विचार रखें तो शायद अन्य लोग भी आपके ज्ञान से लाभान्वित हो सकें!

सादर!


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 18, 2013 at 8:35pm

ग़ज़ल अच्छी लगी आदरणीया पूनम शुक्ला जी । दाद कुबूल करें । 

Comment by अजीत शर्मा 'आकाश' on October 18, 2013 at 5:58pm

अत्यन्त शानदार  ग़ज़ल है पूनम जी.... नदी सी दौड़ती मैं तो चली थी /मुझे रोके जो वो पत्थर कहाँ है .... ये शेर तो वाह वाह..... 

ग़ज़ल की रवानी के क्या कहने!!!

Comment by Abhinav Arun on October 18, 2013 at 3:00pm

नदी सी दौड़ती मैं तो चली थी
मुझे रोके जो वो पत्थर कहाँ है

समा जाऊँ कहीं बोलो कहाँ अब
मगर वो खौलता सागर कहाँ है..

सुन्दर ..सशक्त ..ग़ज़ल 

हार्दिक बधाई आ. पूनम जी  !!

Comment by शकील समर on October 18, 2013 at 2:28pm

इस भावपूर्ण गजल के लिए ढेरों बधाइयां स्वीकार करें आदरणीया Poonam Shukla जी।

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