For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया

खण्ड-खण्ड सब शब्द हुए

अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया

 

बोध-मर्म रहा अछूता  

द्वार-बंद ज्ञान-गेह का

ओस चाटती भावदशा 

छूछा है कलश नेह का

 

मन में पतझड़ आन बसा

अब बसंत का दौर गया 

 

विकृत रूप धारे अक्षर

शूल सरीखे चुभते हैं

रेह जमे मंतव्यों पर

बस बबूल ही उगते हैं

 

संवेदन के निर्जन में  

नहीं दिखे अब बौर नया

-        बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 804

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by vandana on February 4, 2014 at 5:36am

आदरणीय बृजेश जी रेह के बारे में थोड़ा और जानकारी देने के लिए बहुत २ आभार 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 3, 2014 at 11:40pm

स्वागत है.. .

Comment by बृजेश नीरज on February 3, 2014 at 11:11pm

आदरणीय सौरभ जी, आपका हार्दिक आभार!

जैसा कि मैंने आपसे चर्चा भी की थी, यह नवगीत काफ्री लम्बे समय तक मुझे तंग करता रहा. मैं स्वयं इससे असंतुष्ट ही था. कोई उपाय न सूझा तो आखिर में पोस्ट कर दिया. कभी-कभी दिमाग काम करना बंद कर देता है.

आपने रास्ता सुझा दिया है. इसे बेहतर करने का प्रयास करता हूँ. तब आपके सामने पुनः प्रस्तुत करूँगा.

सादर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 3, 2014 at 9:17pm

आपके इस नवगीत से गुजरते हुए मन भाव ने आह से वाह का सफ़र किया.

पहले वाह :

विकृत रूप धारे अक्षर
शूल सरीखे चुभते हैं
रेह जमे मंतव्यों पर
बस बबूल ही उगते हैं

संवेदन के निर्जन में  
नहीं दिखे अब बौर नया ..

क्या कहा जाये भाई ! मन तो जैसे मुग्ध हुआ बस गूँगा हो गया है. क्या कहे कि गुड़ का स्वाद क्या है ! विह्वल मन की अकुलाहट और अन्यमनस्कता को ये पंक्तियाँ जिस ढंग से साझा कर रही हैं, वह आपके शब्द सामर्थ्य का अत्युत्तम उदाहरण है.

भाव सीधा अक्षर बन आँखों के सामने हैं.

बधाई-बधाई-बधाई !

और अब आह :

क्यों भइया, इस नवगीत के मुखड़े को टंग-ट्विस्टर का रूप क्यों दे दिया है आपने ?
सब के बाद शब्द .. यानि दो त्रिकल खण्ड-खण्ड  के ठीक बाद एक बेचारा द्विकल सब, जो  उच्चारण के लिहाज़ से अगले क्लिष्ट त्रिकल शब्द  से बेदर्दी से चँपा हुआ ! और तो और, द्विकल के अक्षर भी लगभग वही, यानि उच्चारण के लिहाज़ से, जो अगले त्रिकल शब्द  के हैं !
इसे क्या शब्द हुए सब खण्ड-खण्ड किया जाना आपके पद विन्यास के अनुसार अनुचित होगा ? यदि नहीं, तो ऐसा किया जाना सही होगा.

पहला बंद भी इसी दोष से बोझिल है. कथ्य का अर्थ तो मैं स्वीकार करता हूँ. इसके लिए हार्दिक बधाई. बन्द सार्थक है.

लेकिन शब्द-संयोजन अभी समय माँग रहा है. विशेषकर, बोध-मर्म रहा अछूता / द्वार-बंद ज्ञान-गेह का

सही शब्द छूँछा है.

विश्वास है, आपने मेरा कहना संप्रेष्य है.

शुभेच्छाएँ
 

Comment by बृजेश नीरज on February 1, 2014 at 7:15pm

आदरणीय रमेश जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on February 1, 2014 at 7:14pm

आदरणीया कुंती जी आपका हार्दिक आभार!

Comment by बृजेश नीरज on February 1, 2014 at 7:14pm

आदरणीया प्राची जी आपका हार्दिक आभार! रचना आपको पसंद आई, मेरा प्रयास सार्थक हुआ.

आतंरिक गेयता और तुकांत को बेहतर करने का प्रयास अवश्य करूँगा!

सादर!

Comment by रमेश कुमार चौहान on February 1, 2014 at 4:21pm

विकृत रूप धारे अक्षर

शूल सरीखे चुभते हैं

रेह जमे मंतव्यों पर

बस बबूल ही उगते हैं                 अति सुंदर

आदरणीय बृजेश जी. बहुत बहुत बधाई

Comment by coontee mukerji on January 31, 2014 at 8:54pm

बहुत सुंदर रचना.बृजेश जी. शब्द और भाव विन्यास एकदम बेजोड़......'


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 31, 2014 at 8:53pm

आदरणीय बृजेश जी 

आपके गीतों नवगीतों के कथ्य सदा ही बाँध लेते हैं, और संवेदनाएं अन्दर तक उतरती चली जाती हैं 

अर्थहीन सतही वक्तव्यों की पीढ़ा मुखर हो कर उभरी है..बहुत बहुत बधाई..

बन्दों में आतंरिक गेयता के लिए शब्द संयोजन में कुछ कमी ज़रूर लगी साथ ही 'दौर गया' वाली पंक्ति में तुकांतता भी कमज़ोर लगी. आपकी प्रस्तुतियों का इंतज़ार रहता है.

शुभकामनाएं स्वीकार करें 

सादर.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Aazi Tamaam posted a blog post

तरही ग़ज़ल: इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्या

२१२२ २१२२ २१२२ २१२इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्यावैसे भी इस गुफ़्तगू से ज़ख़्म भर…See More
6 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"परम् आदरणीय सौरभ पांडे जी सदर प्रणाम! आपका मार्गदर्शन मेरे लिए संजीवनी समान है। हार्दिक आभार।"
16 hours ago
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . . . विविध

दोहा सप्तक. . . . विविधमुश्किल है पहचानना, जीवन के सोपान ।मंजिल हर सोपान की, केवल है  अवसान…See More
22 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"ऐसी कविताओं के लिए लघु कविता की संज्ञा पहली बार सुन रहा हूँ। अलबत्ता विभिन्न नामों से ऐसी कविताएँ…"
23 hours ago
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

छन्न पकैया (सार छंद)

छन्न पकैया (सार छंद)-----------------------------छन्न पकैया - छन्न पकैया, तीन रंग का झंडा।लहराता अब…See More
23 hours ago
Aazi Tamaam commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के
"आदरणीय सुधार कर दिया गया है "
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post गहरी दरारें (लघु कविता)
"आ. भाई सुरेश जी, सादर अभिवादन। बहुत भावपूर्ण कविता हुई है। हार्दिक बधाई।"
yesterday
Aazi Tamaam posted a blog post

ग़ज़ल: चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल के

२२ २२ २२ २२ २२ २चार पहर कट जाएँ अगर जो मुश्किल केहो जाएँ आसान रास्ते मंज़िल केहर पल अपना जिगर जलाना…See More
yesterday
सुरेश कुमार 'कल्याण' posted a blog post

गहरी दरारें (लघु कविता)

गहरी दरारें (लघु कविता)********************जैसे किसी तालाब कासारा जल सूखकरतलहटी में फट गई हों गहरी…See More
Monday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

शेष रखने कुटी हम तुले रात भर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

212/212/212/212 **** केश जब तब घटा के खुले रात भर ठोस पत्थर  हुए   बुलबुले  रात भर।। * देख…See More
Sunday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय चेतन भाईजी,  प्रस्तुति के लिए हार्दि बधाई । लेकिन मात्रा और शिल्पगत त्रुटियाँ प्रवाह…"
Sunday
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 170 in the group चित्र से काव्य तक
"आदरणीय सौरभ भाईजी, समय देने के बाद भी एक त्रुटि हो ही गई।  सच तो ये है कि मेरी नजर इस पर पड़ी…"
Sunday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service