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डायरी और उसके पन्ने ...

धूल में दबी हुयी ये डायरी

जिसकी एक एक परत की हैं ये यादें

हर एक सफा तुम्हारी याद है

.... न जाने कहाँ कहाँ रखा उसे

..... आलमारी मे ठूसा

..... बक्से में दबाया

.... ऊपर टाँड़ पर रखा

अटैची मे रखा ....

उसके पन्नों के रंग उतर गए

मगर लिखावट वही रही

आज भी देखकर उन सफ़ों को

और आपके उन हिसाबों को देखकर

उन हिसाबों मे हमारा भी अंश हैं

जिन्हे आज देखकर महसूस करता हूँ

उन सफ़ों पे लिखा आपका हिसाब

दूध वाले को  - 65 रुपये

सब्जीवाले को  - 120 रुपए

टाफी में  - 2 रुपए

बच्चों की फीस  - 20 रुपये

और भी बहुत कुछ

आज से इसका गहरा संबंध  है

इन सफ़ों में आपकी ममता की जो खुशबू है

डायरी की एक एक परत मे जो छिपा है

वह हमारे जाने के बाद भी बोलेगा

यादें आदमी के जाने के बाद भी बोलती हैं

इन पन्नों को सहेज दो

बंद कर दो, क्यूंकी

माँ की याद तो आ गई

मगर माँ .... ...

 

 

(मौलिक व  अप्रकाशित )

 

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Comment

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Comment by Amod Kumar Srivastava on August 6, 2014 at 8:02pm

बहुत बहुत धन्यवाद आ0 सौरभ पांडे सर... आपका सुझाव सर आँखों पर ... सादर ... 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 4, 2014 at 3:44pm

ममत्व भाव के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन नहीं होता, मात्र नत होना होता है. भाव से बहुत ही सात्विक प्रस्तुति है. जबकि शिल्प से सहज. हार्दिक बधाई स्वीकार करें, भाईजी.

अलबत्ता, रचना की अंतिम पंक्ति हट जाय तो रचना निर्पेक्ष होती हुई भी अत्यंत संप्रेषणीय हो जायेगी.
ऐसा मैं सोचता हूँ.
शुभ-शुभ

Comment by Amod Kumar Srivastava on August 3, 2014 at 6:41pm

आ0 निकोर सर ... बहुत बहुत धन्यवाद ... आभार 

Comment by Amod Kumar Srivastava on August 3, 2014 at 6:41pm

आ0 मीना दी ... धन्यवाद .... सादर ॥ 

Comment by Amod Kumar Srivastava on August 3, 2014 at 6:40pm

आ0 प्राची दी ... आपके आशीर्वचन से मे धन्य हुआ ... सादर 

Comment by Amod Kumar Srivastava on August 3, 2014 at 6:40pm

आ0 गोपाल सर धन्यवाद उत्साहवर्धन के लिए ... आभार 

Comment by vijay nikore on August 3, 2014 at 4:25pm

//यादें आदमी के जाने के बाद भी बोलती हैं

इन पन्नों को सहेज दो

बंद कर दो, क्यूंकी

माँ की याद तो आ गई//

दिवंगत आत्मा की याद को आपने बहुत ही खूबी से, सरलता से मान दिया है। हार्दिक बधाई, आदरणीय आमोद जी।

Comment by Meena Pathak on August 2, 2014 at 3:33pm

मर्मस्पर्शी रचना ...


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 1, 2014 at 3:16pm

डायरी में लिखा हिसाब सिर्फ हिसाब न हो कर जीवन का फलसफा कहता है... माँ साथ ना हो कर..आज भी चैतन्य रूप में ज़िंदा है उस चेतना को डायरी पर जमी धुल की परतें मिटा सकें..ऐसी तो उनकी हैसियत नहीं.

मन को स्पर्श करने वाली इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई आ० आमोद श्रीवास्तव जी 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 1, 2014 at 11:40am

आमोद जी

मुझे भी माँ याद आ गयी  i  अच्छी  रचना है i  सुन्दर i

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