For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

तसव्वुफ़ का है आलम, जिंदगी रोने नहीं देती--(ग़ज़ल)-- मिथिलेश वामनकर

1222—1222—1222—1222

 

तसव्वुफ़ का है आलम, जिंदगी रोने नहीं देती

ये मैली-सी चदरिया मोह की धोने नहीं देती

 

दिखे जो नींद में यारो, वो सपने हो नहीं सकते

ये वो शै है......कभी जो आपको सोने नहीं देती

 

ख़ुशी आई है घर में तो पसे-गम भी यकीनन है

कभी साया अलग  खुद रौशनी होने नहीं देती

 

न करती फ़िक्र माज़ी की, न रखती हैं यकीं कल पे

सफल वो जिंदगी जो आज को खोने नहीं देती

 

तमन्नाओं के गुलशन में उगा लूं ख्व़ाब मैं लेकिन

मेरी गैरत की पथरीली जमीं बोने नहीं देती

 

कज़ा को आज समझा है बड़ी ही नेक दिल साहिब

बदी का बोझ बढ़ जाए तो ये ढोने नहीं देती

 

 

------------------------------------------------------------
(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
------------------------------------------------------------

Views: 767

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 8, 2015 at 9:52pm

आदरणीया राहिला जी, ग़ज़ल पर आपका मुखर अनुमोदन पाकर दिल खुश हो गया. इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार

Comment by Rahila on November 8, 2015 at 8:55pm
बेहतरीन ग़ज़ल आदरणीय मिथलेश जी! और हमारे जैसे नवांकुरों के लिये बेशकीमती उदाहरण इस विधा को जानने और समझने के लिये । बहुत बधाई । सादर नमन ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 8, 2015 at 6:23pm
आदरणीय मोहन बेगोवाल सर ग़ज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 8, 2015 at 6:21pm
आदरणीय रवि जी ग़ज़ल पर आपकी सार्थक प्रतिक्रिया और शानदार मार्गदर्शन पाकर दिल खुश हो गया। आपने मिसरे में बहुत बढ़िया सुधार बताया है। वह शब्दशः स्वीकार करने योग्य है। आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा कहना सार्थक हुआ। ग़ज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार बहुत बहुत धन्यवाद

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 8, 2015 at 6:17pm
आदरणीय गिरिराज सर, ग़ज़ल पर आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन पाकर अभिभूत हूँ। आपके मार्गदर्शन अनुसार पुनः प्रयास करता हूँ। ग़ज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार नमन

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 8, 2015 at 6:14pm
आदरणीय श्याम नरेन् जी ग़ज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 8, 2015 at 6:13pm
आदरणीय आमोद जी ग़ज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 8, 2015 at 6:12pm
आदरणीय मनन जी ग़ज़ल के प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
Comment by Ravi Shukla on November 8, 2015 at 9:37am
आदरणीय मिथिलेशजी सुप्रभात नए अंदाज़ की आपकी ग़ज़ल पढ़ के सुकून हासिल हुआ फिलासफी हमे भी पसंद है ।
मतला शानदार है बधाई स्वीकार करिये ।
पहला शेर बहुत बढ़िया डा कलाम याद आ गए शानदार विचार है ।
दुसरे शेर के उला पर गिरिराज जी की बात से हम भी सहमत है हालांकि ज़रा सा नेगेटिव शेड है ऊला में पर सानी की निस्बत बिना इस शेड के नही हो सकती, पर सानी की जितनी तारीफ की जाये उतनी कम है एक शास्वत सत्य रौशनी से ही साया होता है रौशनी को अपने अस्तित्व के लिए अँधेरे की जरूरत होती है । (ख़ुशी आई है घर में तो यकीनन साथ गम होगा )
इसके बाद वाले शेर में वर्तमान में जीने के दर्शन को तरजीह देता विचार शुदार तरीके से कहा गया है ।
अगला शेर अपनी अपने कथ्य और शिल्प में पूरी संजीसगि और नफासत से साथ पेश हुआ है दिली मुबारक बाद इसके लिएआखरी शेर भी अपने सन्देश के साथ मौजूद है
आखिरी शेर भी बहुत खूब है आदरणीय गिरिराजजी के सुझाव पर विचार करें तो प्रवाह और खूबसूरती और भी बढ़ सकती है इस सुन्दर और भाव पूर्ण ग़ज़ल के ढेर सारी शुभकामनायें स्वीकार करिये । सादर
Comment by मोहन बेगोवाल on November 7, 2015 at 7:56pm

  आदरणीय मिथिलेश जी, बहुत अच्छे अशआर पढ़ने को मिले , बधाई हो 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
yesterday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Saturday
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service