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" फ़िर ग़ज़ल प्रेम की निशानी की "

बहर - 2122 1212 22 

अपने दुश्मन पे गुलफिशानी की l
आबरू उसकी पानी पानी की ।।

वार मैंने निहत्थों पर न किया
यूँ ...अदा रस्म खानदानी की l

ख़त्म उस ने ही कर दी ऐ - यारो
जिसने शुरू प्यार की कहानी की l

होंठ उनके जब न कह सके सच
फ़िर निग़ाहों ने सच बयानी की l

शख्स वो दोस्तों था पत्थर दिल
खामखाँ उस पे गुलफिशानी की l

सोचा  बेहद  के  क्या रखूँ ता - उम्र
फ़िर ग़ज़ल " प्रेम " की निशानी की ...

पंकजोम " प्रेम "

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 3, 2018 at 10:36pm

उम्दा ग़ज़ल कही आदरणीय..सादर

Comment by narendrasinh chauhan on January 3, 2018 at 7:36pm

खूब सुन्दर रचना 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 3, 2018 at 3:20pm

हार्दिक बधाई ।

Comment by Mohammed Arif on December 31, 2017 at 7:49pm

आदरणीय पंकजोम जी आदाब,

                    औसत दर्जे की अच्छी ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।

                   नववर्ष की शुभकामनाएँ !

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