किसलिए भण्डार अपने भर रहे हो
देश बेबस को निवाला कर रहे हो।१।
*
रंग पोते धर्म का बाहर से अपने
आप केवल पाप के ही घर रहे हो।२।
*
निर्वसनता चन्द लोगों को सुहाती
इसलिए क्या चीर सब का हर रहे हो।३।
*
कत्ल का आदेश तुमने ही दिया जब
खून के छींटों से क्योंकर डर रहे हो।४।
*
व्यर्थ है उम्मीद पिघलोगे कभी ये
है पता हर जन्म में पत्थर रहे हो।५।
*
मानता हूँ तम गहन सरकार लेकिन
क्यों चिताओं से उजाला कर रहे हो।६।
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
Comment
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति , स्नेह व उत्साहवर्धन के लिए आभार।
सामयिक स्थिति इंगित करती यह गज़ल अच्छी बनी है, भाई लक्ष्मण जी। हार्दिक बधाई।
आ. भाई विजय शंकर जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय लक्ष्मण धामी मुसाफिर जी , अत्यंत मार्मिक , सामयिक प्रस्तुति के लिए अनेकानेक बधाइयां , सादर।
आ. भाई बसंत जी, सादर अभिवादन । गजल पर उपस्थिति व मनभावन प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद।
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी सादर नमस्कार
अत्यंत मार्मिक गज़ल हुई है, बधाई स्वीकारें
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